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Home » Class 10 Science Notes in Hindi » जैव प्रक्रम Notes || Class 10 Science Chapter 6 in Hindi ||

जैव प्रक्रम Notes || Class 10 Science Chapter 6 in Hindi ||

Posted on April 20, 2023April 20, 2023 by Anshul Gupta

पाठ – 6

जैव प्रक्रम

In this post we have given the detailed notes of class 10 Science chapter 6 Life Processes in Hindi. These notes are useful for the students who are going to appear in class 10 board exams.

इस पोस्ट में कक्षा 10 के विज्ञान के पाठ 6 जैव प्रक्रम  के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 10 में है एवं विज्ञान विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board, CGBSE Board, MPBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 10
SubjectScience
Chapter no.Chapter 6
Chapter Nameजैव प्रक्रम (Life Processes)
CategoryClass 10 Science Notes in Hindi
MediumHindi
Class 10 Science Chapter 6 जैव प्रक्रम Notes in Hindi
Explore the topics
पाठ – 6
जैव प्रक्रम
Chapter – 6 जैव प्रक्रम
जैव प्रक्रम
जैव प्रक्रम में सम्मिलित प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं
जैव रासायनिक प्रक्रम
पोषण की प्रक्रिया
↓
↓
↓
↓
↓
↓
अणुओं के विघटन की समान्य रासायनिक युक्तियाँ
पोषण
पोषण के प्रकार
पोषण दो प्रकार के होते है।
विषमपोषी पोषण तीन प्रकार के होते है।
मनुष्य में पोषण
मनुष्य में पाचन क्रिया
अमाशय में होने वाली क्रिया
↓
↓
↓
↓
दीर्घरोम
श्वसन
विभिन्न जैव प्रक्रमों के लिए ऊर्जा
विभिन्न पथों द्वारा ग्लूकोज का विखंडन का प्रवाह आरेख
वायवीय और अवायवीय श्वसन में अंतर :
श्वसन क्रिया और श्वास लेने में अंतर
विसरण
पौधों में विसरण की दिशा
मनुष्यों में वहन
धमनी और शिरा में अंतर :-
मानव ह्रदय
ह्रदय के वाल्व का कार्य
अन्य जंतुओं में कोष्ठकों का उपयोग :-
दोहरा परिसंचरण
रक्त कोशिकाएँ
प्लाज्मा
रक्तदाब
रक्तदाब दो प्रकार के होते है :-
लसिका
लसिका का कार्य :-
पादपों में परिवहन
जाइलम और फ्लोएम का कार्य
उत्सर्जन
मानव के उत्सर्जन :-
अपोहन कैसे कार्य करता है

Chapter – 6 जैव प्रक्रम

जैव प्रक्रम

  • शरीर की वे सभी क्रियाएँ जो शरीर को टूट – फुट से बचाती हैं और सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करती हैं जैव प्रक्रम कहलाती हैं। सम्मिलित रूप से वे सभी प्रक्रम जो जीवो के जीने के लिए आवश्यक है, उनके अनुरक्षण के लिए आवश्यक है, वे सभी प्रक्रम जैव प्रक्रम में आते हैं, जैसे  उत्सर्जन,पोषण,वहन इत्यादि पोषण इस प्रकरण में जीवो द्वारा आवश्यक पोषक तत्व प्रकृति से लिए जाते हैं। जिसका जीव अपने शरीर में या शरीर के बाहर पाचन करता है। जिससे उस जीव को जीने के लिए ऊर्जा मिलती है। उत्सर्जन: इस प्रक्रम में जीवो द्वारा अपने शरीर से उपापचय क्रिया के दौरान बने विषैले पदार्थों का अपने शरीर से बाहर निकाला जाता है उत्सर्जन कहलाता है।

जैव प्रक्रम में सम्मिलित प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं 

  • पोषण
  • श्वसन
  • वहन
  • उत्सर्जन

पोषण :- सभी जीवों को जीवित रहने के लिए और विभिन्न कार्य करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ये ऊर्जा जीवों को पोषण के प्रक्रम से प्राप्त होता है। इस प्रक्रम में चयापचय नाम की एक जैव रासायनिक क्रिया होती है जो कोशिकाओं में संपन्न होती है और इसकों संपन्न होने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जिसे जीव अपने बाहरी पर्यावरण से प्राप्त करता है। इस प्रक्रम में ऑक्सीजन का उपयोग एवं इससे उत्पन्न कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2) का निष्कासित होना

श्वसन :- कहलाता है। कुछ एक कोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन और कार्बन-डाइऑक्साइड के वहन के लिए विशेष अंगों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इनकी कोशिकाएँ सीधे-तौर पर पर्यावरण के संपर्क में रहते है। परन्तु बहुकोशिकीय जीवों में गैसों के आदान-प्रदान के लिए श्वसन तंत्र होता है और इनके कोशिकाओं तक पहुँचाने के लिए

वहन :- वहन तंत्र होता है जिसे परिसंचरण तंत्र कहते है। जब रासायनिक अभिक्रियाओं में कार्बन स्रोत तथा ऑक्सीजन का उपयोग ऊर्जा प्राप्ति केलिए होता है, तब ऐसे उत्पाद भी बनते हैं जो शरीर की कोशिकाओं के लिए न केवल अनुपयोगी होते हैं बल्कि वे हानिकारक भी हो सकते हैं। इन अपशिष्ट उत्पादों को शरीर से बाहर निकालना अति आवश्यक होता है।

उत्सर्जन :- कहते हैं। चूँकि ये सभी प्रक्रम सम्मिलित रूप से शरीर के अनुरक्षण का कार्य करती है इसलिए इन्हें जैव प्रक्रम कहते है

जैव रासायनिक प्रक्रम

इन सभी प्रक्रियाओं में जीव बाहर से अर्थात बाह्य ऊर्जा स्रोत से उर्जा प्राप्त करता है और शरीर के अंदर ऊर्जा स्रोत से प्राप्त जटिल पदार्थों का विघटन या निर्माण होता है। जिससे शरीर के अनुरक्षण तथा वृद्धि के लिए आवश्यक अणुओं का निर्माण होता है। इसके लिए शरीर में रासायनिक क्रियाओं की एक श्रृंखला संपन्न होती है जिसे जैव रासायनिक प्रक्रम कहते हैं।

पोषण की प्रक्रिया

बाह्य ऊर्जा स्रोत से ऊर्जा ग्रहण करना (जटिल पदार्थ)

↓

​ऊर्जा स्रोत से प्राप्त जटिल पदार्थों का विघटन

↓

जैव रासायनिक प्रक्रम से सरल उपयोगी अणुओं में परिवर्तन

↓

ऊर्जा के रूप में उपभोग

↓

पुन: विभिन्न जैव रासायनिक प्रक्रम का होना

↓

नए जटिल अणुओं का निर्माण (प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया)

↓

शरीर की वृद्धि एवं अनुरक्षण

 

अणुओं के विघटन की समान्य रासायनिक युक्तियाँ 

  • शरीर में अणुओं के विघटन की क्रिया एक रासायनिक युक्ति के द्वारा होती है जिसे चयापचय कहते हैं
  • उपापचयी क्रियाएँ जैवरासायनिक क्रियाएँ हैं जो सभी सजीवों में जीवन को बनाये रखने के लिए होती है।
  • उपापचयी क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं।

उपचयन :- यह रचनात्मक रासायनिक प्रतिक्रियाओं का समूह होता है जिसमें अपचय की क्रिया द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग सरल अणुओं से जटिल अणुओं के निर्माण में होता है। इस क्रिया द्वारा सभी आवश्यक पोषक तत्व शरीर के अन्य भागों तक आवश्यकतानुसार पहुँचाएँ जाते है जिससें नए कोशिकाओं या उत्तकों का निर्माण होता है।

अपचयन :- इस प्रक्रिया में जटिल कार्बनिक पदार्थों का विघटन होकर सरल अणुओं का निर्माण होता है तथा कोशिकीय श्वसन के दौरान उर्जा का निर्माण होता है। जैव प्रक्रम के अंतर्गत निम्नलिखित प्रक्रम है जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं: पोषण, श्वसन, वहन, उत्सर्जन

पोषण

  • सजीवों में होने वाली वह प्रक्रिया जिसमें कोई जीवधारी जैव रासायनिक प्रक्रम के द्वारा जटिल पदार्थों को सरल पदार्थों में परिवर्तित कर ऊर्जा प्राप्त करता है, और उसका उपयोग करता है, पोषण कहलाता है।

जैव रासायनिक प्रक्रम का उदाहरण :

  • पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया
  • जंतुओं में पाचन क्रिया

पौधों में भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते है। इस प्रक्रिया में जीव अकार्बनिक स्रोतों से कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल के रूप में सरल पदार्थ प्राप्त करते हैं ऐसे जीव स्वपोषी कहलाते है। उदाहरण : हरे पौधे तथा कुछ जीवाणु इत्यादि।

एंजाइम :- जटिल पदार्थों के सरल पदार्थों में खंडित करने के लिए जीव कुछ जैव उत्प्रेरक का उपयोग करते हैं जिन्हें एंजाइम कहते हैं।

पोषण के प्रकार

पोषण दो प्रकार के होते है।

  • स्वपोषी पोषण
  • विषमपोषी पोषण

1. स्वपोषी पोषण :- स्वपोषी पोषण एक ऐसा पोषण है जिसमें जीवधारी जैविक पदार्थ (खाद्य) का संश्लेषण अकार्बनिक स्रोतो से स्वयं करते हैं। इस प्रकार के पोषण हरे पादप एवं स्वपोषी जीवाणु करते है।

उदाहरण : हरे पौधें और प्रकाश संश्लेषण करने वाले कुछ जीवाणु।

प्रकाश संश्लेसन: हरे पौधें जल और कार्बन डाइऑक्साइड जैसे कच्चे पदार्थों का उपयोग सूर्य का प्रकाश और क्लोरोफिल की उपस्थिति में भोजन

2. विषमपोषी पोषण :- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपना भोजन अन्य स्रोतों से प्राप्त करता है। इसमें जीव अपना भोजन पादप स्रोत से प्राप्त करता है अथवा प्राणी स्रोतों से करता है। उदाहरण : कवक, फंगस, मनुष्य, सभी जानवर, इत्यादि। 

विषमपोषी पोषण तीन प्रकार के होते है।

(i) मृतपोषित पोषण :- पोषण की वह विधि जिसमें जीवधारी अपना पोषण मृत एवं क्षय (सडे – गले) हो रहे जैव पदार्थो से करते है। मृत जीवी पोषण कहलाता है। इस प्रकार के पोषण कवक एवं अधिकतर जीवाणुओ में होता हैं।

(ii) परजीवी पोषण :- परजीवी पोषण पोषण की वह विधि है जिसमें जीव किसी अन्य जीव से अपना भोजन एवं आवास लेते है और उन्ही के पोषण स्रोत का अवशोषण करते हैं परजीवी पोषण कहलाता है।

इस प्रक्रिया में दो प्रकार के जीवों की भागीदारी होती है।

  • पोषी :- जिस जीव से खाद्य का अवशोषण परजीवी करते है उन्हें पोषी कहते हैं।
  • परजीवी :- परजीवी वह जीव है जो पोषियों के शरीर में रहकर उनके ही भोजन और आवास का अवशोषण करते हैं। जैसे- मच्छरों में पाया जाने वाला प्लाजमोडियम, मनुष्य के आँत में पाया जाने वाला फीता कृमि, गोल कृमि, जू आदि जबकि पौधों में अमरबेल

(iii) प्राणीसमभोज अथवा पूर्णजांतविक पोषण :- पोषण की बह विधि जिसमें जीव ऊर्जा की प्राप्ती पादप एवं प्राणी स्रोतो से प्राप्त जैव पदार्थो के अंर्तग्रहण एवं पाचन द्वारा की जाती हैं। अर्थात वह भोजन को लेता है पचाता है और फिर बाहर निकालता है। जैसे – मनुष्य, अमीबा एवं सभी जानवर।

अमीबा में पोषण :- अमीबा भी मनुष्य की तरह ही पोषण प्राप्त करता है और शरीर के अन्दर पाचन करता है।

 

मनुष्य में पोषण

मनुष्य में पोषण प्राणीसमभोज विधि के द्वारा होता है जिसके निम्न प्रक्रिया है।

  • अंतर्ग्रहण :- भोजन को मुँह में लेना।
  • पाचन :- भोजन का पाचन करना।
  • अवशोषण :- पचे हुए भोजन का आवश्यक पोषक तत्वों में रूपांतरण और उनका अवशोषण होना।
  • स्वांगीकरण :- अवशोषण से प्राप्त आवश्यक तत्व का कोशिका तक पहुँचना और उनका कोशिकीय श्वसन के लिए उपभोग होना।
  • बहि:क्षेपण :- आवश्यक तत्वों के अवशोषण के पश्चात् शेष बचे अपशिष्ट का शरीर से बाहर निकलना।

मनुष्य में पाचन क्रिया

(i) मुँह → भोजन का अंतर्ग्रहण

   दाँत → भोजन का चबाना

   जिह्वा → भोजन को लार के साथ पूरी तरह मिलाना

लाला ग्रंथि → लाला ग्रंथि स्रावित लाला रस या लार का लार एमिलेस एंजाइम की उपस्थिति में स्टार्च को माल्टोस शर्करा में परिवर्तित करना।

(ii) भोजन का ग्रसिका से होकर जाना → हमारे मुँह से अमाशय तक एक भोजन नली होती है जिसे ग्रसिका कहते है। इसमें होने वाली क्रमाकुंचन गति से भोजन आमाशय तक पहुँचता है

(iii) अमाशय (Stomach) → मनुष्य का अमाशय भी एक ग्रंथि है जो जठर रस/ अमाशयिक रस का स्राव करता है, यह जठर रस पेप्सिन जैसे पाचक रस, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और श्लेषमा आदि का मिश्रण होता है।

अमाशय में होने वाली क्रिया

जठर रस

↓

हाइड्रोक्लोरिक अम्ल द्वारा अम्लीय माध्यम प्रदान करना

↓

भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोडना

↓

पेप्सिन द्वारा प्रोटीन का पाचन

↓

श्लेष्मा द्वारा अमाशय के आन्तरिक स्तर का अम्ल से रक्षा करना

(iv) क्षुद्रांत्र → क्षुद्रांत्र आहार नाल का सबसे बड़ा भाग है।

क्षुद्रांत्र तीन भागों से मिलकर बना है।

(i) ड्यूडीनम :- यह छोटी आँत का वह भाग है जो आमाशय से जुड़ा रहता है और आगे जाकर यह जिजुनम से जुड़ता है। आहार नल के इसी भाग में यकृत (liver) से निकली पित की नली कहते है ड्यूडीनम से जुड़ता है और साथ-ही साथ इसी भाग में अग्नाशय भी जुड़ता है। क्षुद्रांत्र का यह भाग यकृत तथा अग्नाशय से स्रावित होने वाले स्रावण प्राप्त करती है

a) यकृत :- यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है, यकृत से पित्तरस स्रावित होता है जिसमें पित्त लवण होता है और यह आहार नाल के इस भाग में भोजन के साथ मिलकर वसा का पाचन करता है।

पित रस का कार्य :-

i) आमाशय से आने वाला भोजन अम्लीय है और अग्नाशयिक एंजाइमों की क्रिया के लिए यकृत से स्रावित पित्तरस उसे क्षारीय बनाता है।

ii) वसा की बड़ी गोलिकाओं को इमल्सिकरण के द्वारा पित रस छोटी वसा गोलिकाओं में परिवर्तित कर देता है।

b) अग्नाशय :- अग्नाशय भी एक ग्रंथि है, जिसमें दो भाग होता है।

i) अंत:स्रावी ग्रंथि भाग :- अग्नाशय का अंत:स्रावी भाग इन्सुलिन नामक हॉर्मोन स्रावित करता है।

ii) बाह्यस्रावी ग्रंथि भाग :- अग्नाशय का बाह्य-स्रावी भाग एंजाइम स्रावित करता है जो एक नलिका के द्वारा शुद्रांत्र के इस भाग में भोजन के साथ मिलकर विभिन्न पोषक तत्वों का पाचन करता है। अग्नाशय से निकलने वाले एंजाइम अग्नाशयिक रस बनाते हैं।

ये एंजाइम निम्न हैं :-

  • ऐमिलेस एंजाइम :- यह स्टार्च का पाचन कर ग्लूकोस में परिवर्तित करता है
  • ट्रिप्सिन एंजाइम :- यह प्रोटीन का पाचन कर पेप्टोंस में करता है।
  • लाइपेज एंजाइम :- वसा का पाचन वसा अम्ल में करता है।

जिजुनम :- ड्यूडीनम और इलियम के बीच के भाग को जुजिनम कहते हैं और यह अमाशय और ड्यूडीनम द्वारा पाचित भोजन के सूक्ष्म कणों का पाचन करता है।

इलियम :- छोटी आँत का यह सबसे लम्बा भाग होता है और भोजन का अधिकांश भाग इसी भाग में पाचित होता है। इसका अंतिम सिरा बृहदांत्र से जुड़ता है। बृहदांत्र को भी कहते है।

दीर्घरोम 

  • मनुष्य के छोटी आंत्र (क्षुद्रांत्र) के आंतरिक स्तर पर अनेक अँगुली जैसे प्रवर्धन पाए जाते हैं जिन्हें दीर्घरोम कहते है

दीर्धरोम का कार्य :-

  • ये अवशोषण के लिए सतही क्षेत्रफल बढा देते है।
  • ये जल तथा भोजन को अवशोषित कर कोशिकाओं तक पहुँचाते है।

श्वसन

  • (क्रमाकुंचन गति) आहारनाल की वह गति जिससे भोजन आहारनाल के एक भाग से दुसरे भाग तक पहुँचता है क्रमाकुंचन गति कहलाता है।

  • भोजन प्रक्रम के दौरान हम जो खाद्य सामग्री ग्रहण करते है, इन खाद्य पदार्थों से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग कोशिकाओं में होता है। जीव इन ऊर्जा का उपयोग विभिन्न जैव प्रक्रमों में उपयोग करता है।

(i) कोशिकीय श्वसन :- ऊर्जा उत्पादन के लिए कोशिकाओं में भोजन के बिखंडन को कोशिकीय श्वसन कहते है।

(ii) श्वास लेना :- श्वसन की यह क्रिया फेंफडे में होता होता है। जिसमें जीव ऑक्सीजन लेता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है।

विभिन्न जैव प्रक्रमों के लिए ऊर्जा

कोशिकाएं विभिन जैव प्रक्रमों के लिए ऊर्जा कोशिकीय श्वसन के दौरान भिन्न – भिन्न जीवों में भिन्न विधियों के द्वारा प्राप्त करती हैं

  • ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में :- कुछ जीव जैसे यीस्ट किण्वन प्रक्रिया के समय ऊर्जा प्राप्त करने के लिए करता है।

          इसका प्रवाह इस प्रकार है :-

          6 कार्बन वाला ग्लूकोज ⇒ तीन कार्बन अणु वाला पायरुवेट में बिखंडित होता है

          ⇒ इथेनॉल, कार्बन डाइऑक्साइड और ऊर्जा मुक्त होता है।

          चूँकि यह प्रक्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है इसलिए इसे अवायवीय श्वसन कहते हैं।

  • ऑक्सीजन का आभाव में :- अत्यधिक व्यायाम के दौरान अथवा अत्यधिक शारीरिक परिश्रम के दौरान हमारे शरीर की पेशियों में ऑक्सीजन का आभाव की स्थिति में होता है। जब शरीर में ऑक्सीजन की माँग की अपेक्षा पूर्ति कम होती है।

          इसका प्रवाह निम्न प्रकार होता है :-

          6 कार्बन वाला ग्लूकोज ⇒ तीन कार्बन अणु वाला पायरुवेट में बिखंडित होता है ⇒ लैक्टिक अम्ल और ऊर्जा मुक्त होता है।

  • ऑक्सीजन की उपस्थिति में :- यह प्रक्रिया हमारी कोशिकाओं के माइटोकोंड्रिया में ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है। इसका प्रवाह निम्न प्रकार से होता है :-

          6 कार्बन वाला ग्लूकोज ⇒ तीन कार्बन अणु वाला पायरुवेट में बिखंडित होता है

          ⇒ कार्बन डाइऑक्साइड, जल और अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा मोचित होता है।

          यह प्रक्रिया चूँकि ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है इसलिए इसे वायवीय श्वसन कहते हैं।

विभिन्न पथों द्वारा ग्लूकोज का विखंडन का प्रवाह आरेख

  • वायवीय श्वसन :- ग्लूकोज विखंडन की वह प्रक्रिया जो ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है उसे वायवीय श्वसन कहते हैं।
  • अवायवीय श्वसन :- ग्लूकोज विखंडन की वह प्रक्रिया जो ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है उसे अवायवीय श्वसन कहते हैं।

वायवीय और अवायवीय श्वसन में अंतर :

अवायवीय श्वसन :-

  • इसमें 2 कार्बन अणु वाला ATP ऊर्जा उत्पन्न होती है।
  • यह प्रक्रम कोशिका द्रव्य में होता है।
  • यह निम्नवर्गीय जीव जैसे यीस्ट कोशोकाओं में होता है।
  • इस प्रकार की श्वसन क्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होती है
  • इसमें ऊर्जा के साथ एथेनोल और कार्बन डाइऑक्साइड मुक्त होता है

वायविय श्वसन :-

  • इसमें 3 कार्बन अणु वाला ATP ऊर्जा उत्पन्न होती है।
  • यह प्रक्रम माइटोकॉड्रिया में होता है।
  • ये सभी उच्चवर्गीय जीवों में पाया जाता हैं।
  • इस प्रकार की श्वसन क्रिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती हैं।
  • इसमें ऊर्जा के साथ कार्बन डाइऑक्साइड और जल मुक्त होता है।

ऊर्जा का उपभोग :- कोशिकीय श्वसन द्वारा मोचित ऊर्जा तत्काल ही ए.टी.पी. (ATP) नामक अणु के संश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है जो कोशिका की अन्य क्रियाओं के लिए ईंधन की तरह प्रयुक्त होता है।

  • ए.टी.पी. के विखंडन से एक निश्चित मात्रा में ऊर्जा मोचित होती है जो कोशिका के अंदर होने वाली आंतरोष्मि क्रियाओं का परिचालन करती है।
  • इस ऊर्जा का उपयोग शरीर विभिन्न जटिल अणुओं के निर्माण के लिए भी करता है जिससे प्रोटीन का संश्लेषण भी होता है। यह प्रोटीन का संश्लेषण शरीर में नए कोशिकाओं का निर्माण करता है।
  • ए.टी.पी. का उपयोग पेशियों के सिकूड़ने, तंत्रिका आवेग का संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए भी होता है।​

वायवीय जीवों में वायवीय श्वसन के लिए आवश्यक तत्व :-

  • पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन ग्रहण करें।
  • श्वसन कोशिकाएं वायु के संपर्क में हो।

श्वसन क्रिया और श्वास लेने में अंतर

श्वसन क्रिया :

  • यह एक जटिल जैव रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें पाचित खाद्यो का ऑक्सिकरण होता है।
  • यह प्रक्रिया माइटोकॉड्रिया में होती हे।
  • इस प्रक्रिया से ऊर्जा का निर्माण होता है।

श्वास लेना ​:

  • ऑक्सिजन लेने तथा कार्बन डाइऑक्साइड छोडने की प्रक्रिया को श्वास लेना कहते है।
  • यह प्रक्रिया फेफडे में होती है।
  • इससे ऊर्जा का निर्माण नहीं होता है। यह रक्त को ऑक्सीजन युक्त करता है और कार्बन डाइऑक्साइड मुक्त करता है।

विसरण

कोशिकाओं की झिल्लियों द्वारा कुछ चुने हुए गैसों का आदान-प्रदान होता है इसी प्रक्रिया को विसरण कहते है।

पौधों में विसरण की दिशा

विसरण की दिशा पर्यावरणीय अवस्थाओं तथा पौधे की आवश्यकता पर निर्भर करती है।

  • पौधे रात्रि में श्वसन करते हैं :- जब कोई प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया नहीं हो रही है, कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन करते है और ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं।
  • पौधे दिन में प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया करते है :- श्वसन के दौरान निकली CO2 प्रकाशसंश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है अतः कोई CO2 नहीं निकलती है। इस समय ऑक्सीजन का निकलना मुख्य घटना है।

कठिन व्यायाम के समय श्वसन दर बढ़ जाती है :- कठिन व्यायाम के समय श्वास की दर अधिक हो जाती है क्योंकि कठिन व्यायाम से कोशिकाओं में श्वसन क्रिया की दर बढ जाती है जिससे अधिक मात्रा में उर्जा का खपत होता है। ऑक्सिीजन की माँग कोशिकाओं में बढ जाती है और अधिक मात्रा में CO2 निकलने लगते है जिससे श्वास की दर अधिक हो जाती है।

मनुष्यों में वहन

रक्त नलिकाएँ :- हमारे शरीर में परिवहन के कार्य को संपन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार की रक्त नलिकाएँ होती हैं। ये तीन प्रकार की होती है

  • धमनी :- वे रक्त वाहिकाएँ जो रक्त को ह्रदय से शरीर के अन्य भागों तक ले जाती है धमनी कहलाती है। जैसे – महाधमनी, फुफ्फुस धमनी आदि।
  • शिरा :- वें रक्त वाहिकाएँ जो रक्त को शरीर के अन्य अंगों से ह्रदय तक लेकर आती हैं। शिराएँ कहलाती हैं। जैसे महाशिरा, फुफ्फुस शिरा आदि।
  • कोशिकाएँ :- वे रक्त नलिकाएँ जो धमनियों और शिराओं को आपस में जोड़ती है केशिकाएँ कहलाती है।

धमनी और शिरा में अंतर :-

धमनी

शिरा

(1)  ह्रदय से रक्त को शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाने वाले रक्त नलिका को धमनी कहते हैं।

(2)  शिरा की तुलना में धमनी की मोटाई पतली होती है।

(3)  इसकी आन्तरिक गोलाई कम होती है

(4)  इसमें रक्तदाब ऊँच होता है।

(5)  सामान्यत: इसमें ऑक्सीजन युक्त रक्त प्रवाहित होता है।

(1)  शरीर के अन्य भागों से रक्त को ह्रदय तक लाने वाले रक्त नलिका को शिरा कहते है।

(2)  शिराओं की मोटाई अधिक होती है

(3)  इसकी आतंरिक गोलाई अधिक होती है।

(4)  इसमें रक्त दाब कम होता है।

(5)  सामान्यत: शिराओं में CO2 रक्त प्रवाहित होता है।

मानव ह्रदय

ह्रदय एक पेशीय अंग है जिसकी संरचना हमारी मुट्ठी के आकार जैसी होती है। यह ऑक्सीजन युक्त रक्त और कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रक्त प्रवाह के दौरान एक दुसरे से मिलने से रोकने के लिए यह कई कोष्ठकों में बँटा हुआ होता है। जिनका कार्य शरीर  के विभिन्न भागों के रक्त को इक्कठा करना और फिर पम्प करके शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाना होता है।

ह्रदय में चार कोष्ठ होते है, दो बाई ओर और दो दाई ओर जिनका नाम और कार्य निम्नलिखित हैं :-

  • दायाँ आलिन्द :- यह शरीर के उपरी और निचले भाग से रक्त को इक्कठा करता है और पम्प द्वारा दायाँ निलय को भेज देता है।
  • दायाँ निलय :- यह रक्त को फुफ्फुस धमनी के द्वारा फुफ्फुस/ फेफड़ें को ऑक्सीकृत होने के भेजता है।
  • बायाँ आलिन्द :- यहाँ रक्त को फुफ्फुस से फुफ्फुस शिरा के द्वारा लाया जाता है और यह रक्त को इक्कठा कर बायाँ निलय में भेज देता है।
  • बायाँ निलय :- बायाँ निलय बायाँ आलिन्द से भेजे गए रक्त को महाधमनी के द्वारा पुरे शारीर तक संचारित कर देता है।

मानव ह्रदय का कार्य-विधि :- ह्रदय के कार्य – विधि के निम्नलिखित चरण है:

  • दायाँ आलिन्द में विऑक्सीजनित रुधिर शरीर से आता है तो यह संकुचित होता है, इसके निचे वाला संगत कोष्ठ दायाँ निलय फ़ैल जाता है और रुधिर को दाएँ निलय में स्थान्तरित कर देता है यह कोष्ठ रुधिर को ऑक्सीजनीकरण के लिए फुफ्फुस के लिए पम्प कर देता है। जब यह पम्प करता है तो इसके वाल्व रुधिर के उलटी दिशा में प्रवाह को रोकता है।
  • पुन: जब रुधिर ऑक्सीजनीकृत होकर फुफ्फुस से ह्रदय में वापस आता है तो यह रुधिर बायाँ आलिन्द में प्रवेश करता है जहाँ इसे इकत्रित करते समय बायाँ आलिन्द शिथिल रहता है। जब अगला कोष्ठ, बायाँ निलय, फैलता है तब यह संकुचित होता है जिससे रुधिर इसमें स्थानांतरित होता है। अपनी बारी पर जब पेशीय बायाँ निलय संकुचित होता है, तब रुधिर शरीर में पंपित हो जाता है।

ह्रदय के वाल्व का कार्य

वाल्व रुधिर के उलटी दिशा में प्रवाह को रोकता है।

ह्रदय का विभिन्न कोष्ठकों में बँटवारा :- हृदय का दायाँ व बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में लाभदायक होता है। इस तरह का बँटवारा शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति कराता है।

अन्य जंतुओं में कोष्ठकों का उपयोग :-

  • पक्षी और स्तनधरी सरीखे जंतुओं को जिन्हें उच्च ऊर्जा की आवश्यकता है, यह बहुत लाभदायक है क्योंकि इन्हें अपने शरीर का तापक्रम बनाए रखने के लिए निरंतर ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उन जंतुओं में जिन्हें इस कार्य के लिए ऊर्जा का उपयोग नहीं करना होता है, शरीर का तापक्रम पर्यावरण के तापक्रम पर निर्भर होता है। जल स्थल चर या बहुत से सरीसृप जैसे जंतुओं में तीन कोष्ठीय हृदय होता है और ये ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को कुछ सीमा तक मिलना भी सहन कर लेते हैं। दूसरी ओर मछली के हृदय में केवल दो कोष्ठ होते हैं। यहाँ से रुधिर क्लोम में भेजा जाता है जहाँ यह ऑक्सीजनित होता है और सीधा शरीर में भेज दिया जाता है। इस तरह मछलियों के शरीर में एक चक्र में केवल एक बार ही रुधिर हृदय में जाता है।

दोहरा परिसंचरण

  • हमारा ह्रदय रक्त को ह्रदय से बाहर भेजने के लिए प्रत्येक चक्र में दो बार पम्प करता है और रक्त दो बार ह्रदय में आता है। इसे ही दोहरा परिसंचरण कहते है।

रक्त कोशिकाएँ

हमारे रक्त में तीन प्रकार की रक्त कोशिकाएँ होती हैं।

  • श्वेत रक्त कोशिका (W.B.C)
  • लाल रक्त कोशिका (R.B.C)
  • प्लेटलेट्स (पट्टीकाणु)

1) श्वेत रक्त कोशिकाओं का कार्य :- यह हमारे शरीर में बाहरी तत्वों या संक्रमण से लड़ती है।

2) लाल रक्त कोशिकाओं का कार्य :- लाल रक्त कोशिकाएँ मुख्यत: हिमोग्लोबिन की बनी होती है। जो रक्त को लाल रंग प्रदान करता है।

हिमोग्लोबिन का कार्य :-

  • रक्त को लाल रंग प्रदान करता है।
  • यह ऑक्सीजन से ऊँच बंधुता रखता है और ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड को एक स्थान से दुसरे स्थान तक ले जाता है।

3) प्लेटलैट्स का कार्य :- शरीर के किसी भाग से रक्तस्राव को रोकने के लिए प्लेटलैट्स कोशिकाए होती है जो पुरे शरीर में भम्रण करती हैं आरै रक्तस्राव के स्थान पर रुधिर का थक्का बनाकर मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं।

प्लाज्मा

रक्त कोशिकाओं के आलावा रक्त में एक और संयोजी उत्तक पाया जाता है जो रक्त कोशिकाओं के लिए एक तरल माध्यम प्रदान करता है जिसे प्लाज्मा कहते हैं।

प्लाज्मा का कार्य :- इसमें कोशिकाएं निलंबित रहती हैं। प्लाज्मा भोजन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ का विलीन रूप से वहन करता है।

रक्तदाब

 रुधिर वाहिकाओं के विरुद्ध जो दाब लगता है उसे रक्तदाब कहते है।

रक्तदाब दो प्रकार के होते है :-

i) प्रकुंचन दाब :- धमनी के अन्दर रुधिर का दाब जब निलय निलय संकुचित होता है तो उसे प्रकुंचन दाब कहते हैं।

ii) अनुशिथिलन दाब :- निलय अनुशिथिलन के दौरान धमनी के अन्दर जो दाब उत्पन्न होता है उसे अनुशिथिलन दाब कहते हैं

  • एक समान्य मनुष्य का रक्तचाप : 120mm पारा से 80mm पारा होता है।
  • रक्तचाप मापने वाला यन्त्र : स्फैग्नोमोमैनोमीटर यह रक्तदाब मापता है।

लसिका

केशिकाओं की भिति में उपस्थित छिद्रों द्वारा कुछ प्लैज्मा, प्रोटीन तथा रूधिर कोशिकाएँ बाहर निकलकर उतक के अंतर्कोशिकीय अवकाश में आ जाते है तथा उतक तरल या लसीका का निर्माण करते है। यह प्लाज्मा की तरह ही एक रंगहीन तरल पदार्थ है जिसे लसिका कहते हैं। इसे तरल उतक भी कहते हैं।

लसिका का बहाव शरीर में एक तरफ़ा होता है। अर्थात नीचे से ऊपर की ओर और यह रक्त नलिकाओं में न बह कर इसका बहाव अंतरकोशिकीय अवकाश में होता है। जहाँ से यह लसिका केशिकाओं में चला जाता है। इस प्रकार यह एक तंत्र का निर्माण करता है जिसे लसिका तंत्र कहते है। इस तंत्र में जहाँ सभी लसिका केशिकाएँ लसिका ग्रंथि (Lymph Node) से जुड़कर एक जंक्शन का निर्माण करती है। लसिका ग्रंथि लसिका में उपस्थित बाह्य कारकों जो संक्रमण के लिए उत्तरदायी होते है उनकी सफाई करता है। 

अंतरकोशिकीय अवकाश :- दो कोशिकाओं के बीच जो रिक्त स्थान होता है उसे अंतरकोशिकीय अवकाश कहते है

लसिका का कार्य :-

  • यह शरीर में प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनता है तथा वहन में सहायता करता है।
  • पचा हुआ तथा क्षुदान्त्र द्वारा अवशोषित वसा का वहन लसिका के द्वारा होता है
  • बाह्य कोशिकीय अवकाश में इक्कठित अतिरिक्त तरल को वापस रक्त तक ले जाता है
  • लसीका में पाए जाने वाले लिम्फोसाइट संक्रमण के विरूद्ध लडते है।

पादपों में परिवहन

पादप शरीर के निर्माण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री अलग से प्राप्त की जाती है। पौधें के लिए नाइट्रोजन, फोस्फोरस तथा दूसरे खनिज लवणों के लिए मृदा निकटतम तथा प्रचुरतम स्रोत है। इसलिए इन पदार्थों का अवशोषण जड़ों द्वारा, जो मृदा के संपर्क में रहते हैं, किया जाता है। यदि मृदा के संपर्क वाले अंगों में तथा क्लोरोफिल युक्त अंगों में दूरी बहुत कम है तो ऊर्जा व कच्ची सामग्री पादप शरीर के सभी भागों में आसानी से विसरित हो सकती है। पादपों के शरीर का एक बहुत बड़ा भाग मृत कोशिकाओं का होता है इसलिए पादपों को कम उर्जा की आवश्यकता होती है तथा वे अपेक्षाकृत धीमे वहन तंत्र प्रणाली का उपयोग कर सकते है। इसमें संवहन उत्तक जाइलम और फ्लोएम की महत्वपूर्ण भूमिका है।

जाइलम और फ्लोएम का कार्य

जाइलम का कार्य :- यह मृदा प्राप्त जल और खनिज लवणों को पौधे के अन्य भाग जैसे पत्तियों तक पहुँचाता है।

फ्लोएम का कार्य :- यह पत्तियों से जहाँ प्रकाशसंश्लेषण के द्वारा बने उत्पादों को पौधे के अन्य भागों तक वहन करता है।

पादपों में जल का परिवहन :-

  • जाइलम ऊतक में जड़ों, तनों और पत्तियों की वाहिनिकाएँ तथा वाहिकाएँ आपस में जुड़कर जल संवहन वाहिकाओं का एक सतत जाल बनाती हैं जो पादप के सभी भागों से संबद्ध होता है। जड़ों की कोशिकाएँ मृदा के संपर्क में हैं तथा वे सक्रिय रूप से आयन प्राप्त करती हैं। यह जड़ और मृदा के मध्य आयन सांद्रण में एक अंतर उत्पन्न करता है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए मृदा से जल जड़ में प्रवेश कर जाता है। इसका अर्थ है कि जल अनवरत गति से जड़ के जाइलम में जाता है और जल के स्तंभ का निर्माण करता है जो लगातार ऊपर की ओर धकेला जाता है।
  • दूसरी ऊँचे पौधों में उपरोक्त विधि पर्याप्त नहीं है। अत: एक अन्य विधि है जिसमें पादपों के पत्तियों के रंध्रों से जो जल की हानि होती है उससे कोशिका से जल के अणुओं का वाष्पन एक चूषण उत्पन्न करता है जो जल को जड़ों में उपस्थित जाइलम कोशिकाओं द्वारा खींचता है। इससे जल का वहन उर्ध्व की ओर होने लगता है। “अत: वाष्पोत्सर्जन से जल के अवशोषण एवं जड़ से पत्तियों तक जल तथा उसमें विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक है”

भोजन तथा अन्य दुसरे पदार्थों का परिवहन :- सुक्रोज सरीखे पदार्थ फ्रलोएम ऊतक में ए.टी.पी. से प्राप्त ऊर्जा से ही स्थानांतरित होते हैं। यह ऊतक का परासरण दाब बढ़ा देता है जिससे जल इसमें प्रवेश कर जाता है। यह दाब पदार्थों को फ्लोएम से उस ऊतक तक ले जाता है जहाँ दाब कम होता है। यह फ्लोएम को पादप की आवश्यकता के अनुसार पदार्थों का स्थानांतरण कराता है। उदाहरण के लिए, बसंत में जड़ व तने के ऊतकों में डारित शर्करा का स्थानांतरण कलिकाओं में होता है जिसे वृद्धि के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

उत्सर्जन

  • उत्सर्जन :- वह जैव प्रक्रम जिसमें इन हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन कहलाता है।
  • अमीबा में उत्सर्जन :- एक कोशिकीय जीव अपने शरीर से अपशिष्ट पदार्थों को शरीर की सतह से जल में विसरित कर देता है।
  • बहुकोशिकीय जीवों में उत्सर्जन :- बहुकोशिकीय जीवों में उत्सर्जन की प्रक्रिया जटिल होती है, इसलिए इनमें इस कार्य को पूरा करने के लिए विशिष्ट अंग होते है।

मानव के उत्सर्जन :-

उत्सर्जी अंगों का नाम :- उत्सर्जन में भाग लेने वाले अंगों को उत्सर्जी अंग कहते है । ये निम्नलिखित हैं।

  • वृक्क
  • मुत्रवाहिनी
  • मूत्राशय
  • मूत्रमार्ग

वृक्क :- मनुष्य में एक जोड़ी वृक्क होते हैं जो उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते हैं।

उत्सर्जन की प्रक्रिया :- वृक्क में मूत्र बनने के बाद मूत्रवाहिनी में होता हुआ मूत्रशय में आ जाता है तथा यहाँ तब तक एकत्र रहता है जब तक मूत्रमार्ग से यह निकल नहीं जाता है।

उत्सर्जी पदार्थ :- उत्सर्जन के उपरांत निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ कहते है।

उत्सर्जी पदार्थों के नाम :

  • नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया
  • यूरिक अम्ल
  • अमोनिया
  • क्रिएटिन

वृक्क का कार्य :-

  • यह शरीर में जल और अन्य द्रव का संतुलन बनाता है जिससे रक्तचाप नियंत्रित होता है।
  • यह रक्त से खनिजों तथा लवणों को नियंत्रित और फ़िल्टर करता है।
  • यह भोजन, औषधियों और विषाक्त पदार्थों से अपशिष्ट पदार्थों को छानकर बाहर निकलता है
  • यह शरीर में अम्ल और क्षार की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद करता है

वृक्काणु :- प्रत्येक वृक्क में निस्यन्दन एकक को विक्काणु कहते है।

मूत्र बनने की मात्रा का नियमन :- यह निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है

  • जल की मात्रा का पुनरवशोषण पर
  • शरीर में उपलब्ध अतिरिक्त जल की मात्रा पर
  • कितना विलेय पदार्थ उत्सर्जित करना है

शरीर में निर्जलीकरण की अवस्था में वृक्क का कार्य :- शरीर में निर्जलीकरण की अवस्था में वृक्क मूत्र बनने की प्रक्रिया को कम कर देता है, यह एक विशेष प्रकार के हार्मोन के द्वारा नियंत्रित होता है।

वृक्क की क्रियाहीनता :- संक्रमण, अघात या वृक्क में सीमित रक्त प्रवाह आदि कारणों से कई बार वृक्क कार्य करना कम कर देता है या बंद कर देता है। इसे ही वृक्क की क्रियाहीनता कहते है। इससे शरीर में विषैले अपशिष्ट पदार्थ संचित होते जाते है जिससे व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है। वृक्क की इस निष्क्रिय अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग किया जाता है जिससे नाइट्रोजनी अपशिष्टों को शरीर से निकाला जा सके

कृत्रिम वृक्क :- नाइट्रोजनी अपशिष्टों को रक्त से एक कृत्रिम युक्ति द्वारा निकालने की युक्ति को अपोहन कहते है।

अपोहन कैसे कार्य करता है

कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्धपारगम्य अस्तर वाली नलिकाओं से युक्त होती है । ये नलिकाएँ अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती हैं। इस द्रव क परासरण दाब रुधिर जैसा ही होता है लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं। रोगी के रुधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित कराते हैं। इस मार्ग में रुधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते हैं। शुद्ध किया गया रुधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है।

वृक्क और कृत्रिम वृक्क में अन्तर :- वृक्क में पुनरवशोषण होता है जबकि कृत्रिम वृक्क में पुनरवशोषण नहीं होता है।

पादपों में उत्सर्जन :-

  • पौधे अतिरिक्त जल को वाष्पोत्सर्जन द्वारा बाहर निकल देते हैं।
  • बहुत से पादप अपशिष्ट उत्पाद कोशिकीय रिक्तिका में संचित रहते हैं।
  • पौधें से गिरने वाली पत्तियों में भी अपशिष्ट उत्पाद संचित रहते हैं।
  • अन्य अपशिष्ट उत्पाद रेजिन तथा गोंद के रूप में विशेष रूप से पुराने जाइलम में संचित रहते हैं।
  • पादप भी कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास की मृदा में उत्सर्जित करते।

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