पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त (CH-4) Notes in Hindi || Class 11 Economics || Micro Economics (व्यष्टि अर्थशास्त्र) Chapter 4 in Hindi ||

पाठ – 4

पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त

In this post we have given the detailed notes of class 11 Economics chapter 4 पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त (The Theory of Firm Under Perfect Competition) in Hindi. These notes are useful for the students who are going to appear in class 11 board exams.

इस पोस्ट में कक्षा 11 के अर्थशास्त्र के पाठ 4 पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त (The Theory of Firm Under Perfect Competition) के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 11 में है एवं अर्थशास्त्र विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 11
SubjectEconomics
Chapter no.Chapter 4
Chapter Nameपूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त (The Theory of Firm Under Perfect Competition)
CategoryClass 11 Economics Notes in Hindi
MediumHindi
Class 11 Economics Chapter 4 पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त (The Theory of Firm Under Perfect Competition) in Hindi
Table of Content
3. Chapter – 4 पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त
3.3. संप्राप्ति

Chapter – 4 पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धान्त

 स्मरणीय बिन्दु

  • प्रत्येक फर्म को यह निर्णय लेना पड़ता है कि कितना उत्पादन करना है।
  • यह मान्यता है कि प्रत्येक फर्म कठोर रूप से लाभ अधिकतमकर्ता होती है।
  • एक फर्म के संतुलन के आधार पर फर्म का पूर्ति वक्र ज्ञात किया जाता है।
  • व्यक्तिगत फर्मों के पूर्ति वक्रों को समूहित किया जाता है तथा बाज़ार पूर्ति वक्र प्राप्त किया जाता है।

पूर्ण प्रतिस्पर्धा-पारिभाषिक लक्षण

  • क्रेताओं और विक्रेताओं की बड़ी संख्या
  • समरूप वस्तु
  • पूर्ण ज्ञान
  • स्वतन्त्र प्रवेश व छोड़ना
  • स्वतन्त्र निर्णय लेना
  • पूर्ण गतिशीलता
  • अतिरिक्त यातायात लागत का अभाव

संप्राप्ति

  • किसी वस्तु की बिक्री करने से एक फर्म को, जो कुल रकम प्राप्त होती है उसे फर्म की संप्राप्ति कहा जायेगा।
  • कुल संप्राप्ति वह है जो एक फर्म को विक्रय करने पर कुल मौद्रिक प्राप्तियां होती हैं।
  • सीमान्त संप्राप्ति वह राशि है जो वस्तु की अंतिम इकाई बेचकर प्राप्त की जाती हैं। सीमान्त प्राप्ति कुल संप्राप्ति का वह अंतर है, जो उत्पादन की एक अतिरिक्त इकाई बेचकर प्राप्त होता है।
  • औसत संप्राप्ति से अभिप्राय है उत्पादन की प्रति इकाई की बिक्री से प्राप्त संप्राप्ति।

संप्राप्ति की अवधारणा

  • कुल संप्राप्ति TR: यह वह मौद्रिक राशि होती है जो एक निश्चित समयावधि में फर्म को उत्पाद की दी हुई इकाईयों की बिक्री से प्राप्त होती है।
  • TR = कीमत (AR)  x बेची गई मात्रा (Q) अथवा TR =
  • औसत संप्राप्ति: बेची गई वस्तु की प्रति इकाई सम्प्राप्ति को औसत संप्राप्ति कहते हैं। यह वस्तु की कीमत के बराबर होती

  • वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल संप्राप्ति में होने वाला परिवर्तन सीमांत

MR तथा AR में संबंध

  • जब MR > AR, AR बढ़ता है।
  • जब MR = AR, AR अधिकतम तथा स्थिर होता है।
  • जब MR < AR, AR घटता है।
  • जब प्रति इकाई कीमत स्थिर रहती है तब औसत, सीमांत व कुल संप्राप्ति में संबंध (पूर्ण प्रतियोगिता)
    • औसत व सीमांत संप्राप्ति उत्पादन के सभी स्तरों पर स्थिर रहती है तथा इनका वक्र x-अक्ष के समांतर होता है।
    • कुल संप्राप्ति स्थिर दर से बढ़ती है व इसका वक्र मूल बिन्दु से गुजरने वाली सीधी धनात्मक ढाल वाली 45° रेखा केसमान होता है।
  • जब वस्तु की अतिरिक्त मात्रा बेचने के लिए प्रति इकाई कीमत घटाई जाए अथवा एकाधिकार व एकाधिकारात्मक बाजार में TR, AR तथा MR में संबंध।
    • AR व MR वक्र नीचे की ओर गिरते हुए ऋणात्मक ढ़ाल वाले होते हैं। MR वक्रAR वक्र के नीचे रहता है।
    • MR, AR की तुलना में दो गुणा दर से घटता है, यदि दोनों वक्र सीधी रेखा हो।
    • TR घटते हुए दर से बढ़ता है MR भी घटता है परन्तु धनात्मक रहता है।
    • TR में उस स्थिति तक वृद्धि होती है जब तक MR धनात्मक होता है जहाँ MR शून्य होगा वहाँ TR अधिकतम होताहै और जब MR ऋणात्मक हो जाता है तब TR घटने लगता है।

उत्पादक संतुलन की अवधारणा

  • उत्पादक का संतुलन वह अवस्था है, जिसमें उत्पादक को प्राप्त होने वाले लाभ अधिकतम होते हैं। वह उस अवस्था को बदलना नहीं चाहता है।
  • सीमांत लागत व सीमांत संप्राप्ति विचारधारा: इस विचारधारा के अनुसार संतुलन की शर्ते निम्न हैं
    • सीमांत संप्राप्ति व सीमांत लागत समान हों।
    • संतुलन बिन्दु के पश्चात् उत्पादन में वृद्धि की स्थिति में सीमांत लागत संप्राप्ति से अधिक हो।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत संप्राप्ति की अवधारणाओं में अंतर्संबंध

  • पूर्ण प्रतियोगिता फर्म कीमत स्वीकारक (Pricetaker) होती है।
  • इसका कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं होता। जो कीमत बाज़ार माँग तथा बाज़ार पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है, वह प्रत्येक फर्म को स्वीकार करनी पड़ती है।
  • कीमत प्रत्येक इकाई पर समान रहने पर AR वक्र X-अक्ष के समांतर होता है।
  • गिरि वक्र यदि स्थिर रहे तो MR वक्र भी स्थिर होगा तथा AR वक्र एवं MR वक्र एक ही हो जायेंगे अर्थात् उत्पादन के प्रत्येक स्तर (AR = MR होगा)।
  • TR वक्र मूल बिन्दु से शुरू तो हुआ हो एक सीधी रेखा होता है, जो समान दर पर (स्थिर MR) बढ़ता है।

एकाधिकार बाज़ार तथा एकाधिकारिक प्रतियोगी बाज़ार में TR, MR तथा AR में अंतर्संबंध

  • एकाधिकार तथा एकाधिकारिक, प्रतियोगी बाज़ार में औसत संप्राप्ति वक्र तथा सीमान्त संप्राप्ति वक्र बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरते हुए होते हैं।
  • इसका अर्थ है कि एकाधिकार या एकाधिकारिक प्रतियोगी बाज़ार में उत्पादक को अधिक मात्रा विक्रय करने के लिए कीमत कम करनी पड़ती है।
  • जब AR कम होता है तो MR उससे अधिक दर से कम होता है।
  • TR पहले घटती दर पर पहुंचता है, अपने अधिकतम पर पहुँचता है और फिर गिरने लगता है।

उत्पादक संतुलन

  • उत्पादक संतुलन से अभिप्राय उस स्थिति से है, जब उत्पादक अधिकतम लाभ कम हो रहा है।
  • एक उत्पादक का संतुलन उत्पादन के उस स्तर पर होता है जहाँ लाभ अधिकतम होता है अर्थात् लाभ = TR – TC अधिकतम हो।
  • जहाँ TR = कुल संप्राप्ति, TC = कुल लागत • जब TR > TC तो इसे असामान्य लाभ की स्थिति कहा जाता है।
  • जब TR < TC तो इसे हानि की स्थिति कहा जाता है।

सीमांत संप्राप्ति तथा सीमांत लागत दृष्टिकोण

  • इसके अनुसार उत्पादक तब संतुलन में होता है जब
    • MR =MC
    • MC बढ़ रहा हो।
  • यदि MR = MC हो परन्तु उस बिन्दु पर MC घट रहा हो तो वह उत्पादक संतुलन बिन्दु नहीं है।

कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु

  • जब TR = TC हो तो उसे समविच्छेद बिन्दु (8 neck Even Point) या लाभ कहा जाता है। यह एक ऐसा बिन्दु होता है, जिस पर उत्पादक को न लाभ होता है न हानि।
  • जब AR = AVC हो तो उसे उत्पादन बन्दी बिन्दु कहा जाता हैं लाभ अधिकतमीकरण करने वाली फर्म किसी ऐसे उत्पादन स्तर पर कार्यशील नहीं रहेगी जहाँ बाज़ार कीमत औसत परिवर्ती लागत की तुलना में कम हो।
  • दीर्घकाल में फर्म किसी ऐसे उत्पादन स्तर पर कार्यशील नहीं रहेगी जहां बाज़ार कीमत औसत लागत की तुलना में कम हो।
  • जब TR = TC हो तो इसे सामान्य लाभ बिन्दु कहा जाता है।
  • जब TR > TC हो तो इसे अधिसामान्य लाभ बिन्दु कहा जाता है।

पूर्ति का अर्थ

  • किसी वस्तु की पूर्ति से अभिप्राय एक समयावधि में एक वस्तु की विभिन्न कीमतों पर उत्पादक द्वारा बेची जाने वाली विभिन्न मात्राओं से है।
  • अन्य शब्द में किसी वस्तु की पूर्ति से अभिप्राय उस अनुसूची या तालिका से है, जो वस्तु की उन मात्राओं को दर्शाती है, जो उत्पादक वस्तु की विभिन्न कीमतों पर एक निश्चित समय पर बेचने के लिए तैयार है।

किसी वस्तु की पूर्ति को प्रभावित करने वाले कारक

  • वस्तु की कीमत
  • अन्य संबंधित वस्तुओं की कीमतें
  • आगतों की कीमतें
  • उत्पादक की तकनीक
  • फर्मों की संख्या
  • फर्मों का उद्देश्य
  • कर तथा आर्थिक सहायता से संबंधित सरकारी नीति।

पूर्ति वक्र एवं उसका ढाल

  • पूर्ति वक्र का ढ़ाल धनात्मक होता है। यह वस्तु की कीमत तथा उसकी पूर्ति में प्रत्यक्ष संबंध को बताता है।
  • पूर्ति वक्र का ढाल = कीमत में परिवर्तन / पूर्ति मात्रा में परिवर्तन =  

पूर्ति अनुसूची

  • पूर्ति अनुसूची एक तालिका है जो वस्तु की विभिन्न संभव कीमतों पर बिक्री के लिए प्रस्तुत की जाने वाली उस वस्तु की विभिन्न मात्राओं को दर्शाती है। यह दो प्रकार की हो सकती है-व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची तथा बाज़ार पूर्ति अनुसूची।
  • व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची से अभिप्राय बाज़ार में किसी एक फर्म की पूर्ति अनुसूची से है।
  • बाज़ार पूर्ति अनुसूची से अभिप्राय बाज़ार में किसी विशेष वस्तु का उत्पादन करने वाली सभी फर्मों की पूर्ति के योग से है।

पूर्ति वक्र

  • पूर्ति वक्र पूर्ति अनुसूची का रेखाचित्रीय प्रस्तुतीकरण है। यह किसी वस्तु की विभिन्न संभव कीमतों पर बिक्री के लिए प्रस्तुत की जाने वाले अलार्म (no profit no loss) उस वस्तु की विभिन्न मात्राओं को एक रेखाचित्र में दर्शाती है।
  • पूर्ति वक्र दो प्रकार का हो सकता है व्यक्तिगत पूर्ति वक्र तथा बाज़ार पूर्ति वक्र।
  • व्यक्तिगत पूर्ति वक्र बाज़ार में एक व्यक्ति फर्म की पूर्ति को रेखाचित्र के रूप में दर्शाता है। बाज़ार पूर्ति वक्र संपूर्ण (फर्मों के जोड़) की पूर्ति को रेखाचित्र के रूप में दर्शाता है।

पूर्ति के निर्धारक तत्व

  • पूर्ति फलन किसी वस्तु की पूर्ति तथा उसके निर्धारक तत्वों के बीच के फलनात्मक संबंध का अध्ययन करता है।
  • इसे निम्नलिखित समीकरण द्वारा प्रकट किया गया है

जहाँ sn = वस्तु x की पूर्ति

Pn = वस्तु x की कीमत

Pr = संबंधित वस्तुओं की कीमत

G = फर्म का उद्देश्य

Gp = सरकारी नीतियां

C = लागत

T = तकनीक की स्थिति

N = फर्मी की संख्या

  • वस्तु की अपनी कीमत या वस्तु की पूर्ति में धनात्मक संबंध है। कीमत बढ़ने पर पूर्ति बढ़ती है तथा विपरीत।
  • संबंधित वस्तुओं की कीमत तथा वस्तु की पूर्ति में ऋणात्मक संबंध है। संबंधित वस्तुओं की कीमत बढ़ने पर वस्तु की पूर्ति कम होती है तथा विपरीत।
  • यदि फर्म का उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना है, तो केवल अधिक कीमत पर पूर्ति में वृद्धि की जायेगी।
  • वस्तु की उत्पादन लागत तथा पूर्ति में ऋणात्मक संबंध है। वस्तु की उतपादन लागत बढ़ने पर पूर्ति कम होगी तथा विपरीत।
  • सरकारी नीतियाँ भी पूर्ति को प्रभावित करती हैं। जिस वस्तु पर कर बढ़ाया जाता है उसकी पूर्ति कम हो जाती है तथा विपरीत। जिस वस्तु पर आर्थिक सहायता बढ़ाई जाती है उसकी पूर्ति बढ़ जाती है तथा विपरीत।
  • तकनीक में सुधार होने पर पूर्ति में वृद्धि हो जाती है।
  • फर्मों की संख्या जितनी अधिक होगी पूर्ति उतनी अधिक होगी तथा विपरीत।

पूर्ति का नियम

  • पूर्ति के नियम के अनुसार, “अन्य बातें समान रहने पर किसी वस्तु की पूर्ति की गई मात्रा तथा उसकी कीमत में धनात्मक

संबंध है। अतः कीमत बढ़ने पर वस्तु की पूर्ति की गई मात्रा भी बढ़ती है तथा कीमत कम होने पर वस्तु की पूर्ति की गई मात्रा भी कम होती है।P. 1- Set, Pe + S !

कीमत

पूर्ति (2) इकाइयाँ

1

2

2

4

3

6

4

8

पूर्ति वक्र पर संचलन तथा पूर्ति वक्र में खिसकाव

  • पूर्ति वक्र पर संचलन वस्तु की अपनी कीमत में परिवर्तन के कारण होता है, जबकि पूर्ति वक्र में खिसकाव वस्तु की अपनी कीमत के अतिरिक्त अन्य कारकों में परिवर्तन के कारण होता है।
  • पूर्ति वक्र पर संचलन का अध्ययन दो भागों में किया जा सकता है-पूर्ति का विस्तार तथा पूर्ति का संकुचन। पूर्ति वक्र में खिसकाव का अध्ययन भी दो भागों में किया जा सकता है-पूर्ति में वृद्धि तथा पूर्ति में कमी।
  • जब वस्तु की अपनी कीमत बढ़ने से पूर्ति की गई मात्रा बढ़ती है, तो इसे पूर्ति में विस्तार कहते हैं। जब वस्तु की अपनी कीमत के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से पूर्ति की गई मात्रा बढ़ती है तो इसे पूर्ति में वृद्धि कहते हैं।
  • जब वस्तु की अपनी कीमत कम होने से पूर्ति की गई मात्रा कम होती है, जो इसे पूर्ति में संकुचन कहते हैं। जब वस्तु की अपनी कीमत के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से पूर्ति की गई मात्रा घटती है तो इसे पूर्ति में कमी कहते हैं।

पूर्ति की कीमत लोच

  • एक वस्तु की पूर्ति की कीमत लोच, वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण वस्तु की पूर्ति की मात्रा की अनुक्रियाशीलता को मापती है।
  • अधिक स्पष्ट रूप से, पूर्ति की कीमत की कीमत लोच वस्तु की पूर्ति की मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन तथा वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तन का अनुपात है।

पूर्ति की कीमत लोच के माप

  • प्रतिशत विधि- इस विधि के अनुसार

ज्यामितीय विधि- एक सीधी रेखा वाले पूर्ति वक्र पर ESp ज्ञात करने के लिए उसे आगे तक बढ़ाते हैं।

  • यदि बढ़ाने पर पूर्ति वक्र मूल बिन्दु पर मिलता है तो ESp = 1
  • यदि बढ़ाने पर पूर्ति वक्र X-अक्ष के धनात्मक भाग पर काटता है तो ESp < 1
  • यदि बढ़ाने पर पूर्ति वक्र X अक्ष के ऋणात्मक भाग पर काटता है तो ESp> 1

पूर्ति की कीमत लोच के प्रकार

  • पूर्णतया बेलोचदार पूर्ति (EDp = 0)
  • बेलोचदार पूर्ति (EDp < 0)
  • इकाई के बराबर लोचदार पूर्ति (EDp = 1)
  • लोचदार पूर्ति (EDp > 1)
  • पूर्णतया लोचदार पूर्ति (EDp = CO)

पूर्ति की लोच को प्रभावित करने वाले कारक

  • प्रयोग किए जाने वाले आगतों की प्रकृति
  • प्राकृतिक बाधाएँ
  • उत्पादन की जोखिम सहन करने की क्षमता
  • उत्पादन लागत
  • समयावधि
  • उत्पादन की तकनीक
  • वस्तु की प्रकृति

पूर्ति की मात्रा में परिवर्तन बनाम पूर्ति में परिवर्तन

1. पूर्ति मात्रा में परिवर्तन (पूर्ति वक्र के साथ संचलन)

कारण- वस्तु की कीमत में परिवर्तन (अन्य कारक स्थिर)

  • पूर्ति मात्रा में वृद्धि (पूर्ति का विस्तार)
    • पूर्ति वक्र पर ऊपर की ओर संचलन।
    • वस्तु की कीमत में वृद्धि के कारण
  • पूर्ति मात्रा में कमी (पूर्ति का संकुचन)
    • पूर्ति वक्र पर नीचे की ओर संचलन
    • वस्तु की कीमत में कमी के कारण

2. पूर्ति में परिवर्तन (पूर्ति वक्र का विवर्तन (खिसकाव)

कारण- अन्य कारकों में परिवर्तन

  • पूर्ति में वृद्धि (पूर्ति वक्र का दायी ओर खिसकना)
    • अन्य कारकों में अनुकूल परिवर्तन
    • आगतों की कीमत में कमी।
    • सम्बन्धित वस्तुओं की कीमतों में कमी।
    • तकनीकी प्रगति।
    • फर्मों की संख्या में वृद्धि।
  • पूर्ति में कमी (पूर्ति वक्र का बायीं ओर खिसकना)
    • अन्य कारकों में प्रतिकूल परिवर्तन
    • आगतों की कीमत में वृद्धि।
    • सम्बन्धित वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि।
    • पुरानी तकनीक।फर्मों की संख्या में कमी।

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