सहसंबंध (CH-7) Notes in Hindi || Class 11 Economics || Statistics for Economics Chapter 7 in Hindi ||

पाठ – 7

सहसंबंध

In this post we have given the detailed notes of class 11 Economics chapter 7 सहसंबंध (Correlation) in Hindi. These notes are useful for the students who are going to appear in class 11 board exams.

इस पोस्ट में कक्षा 11 के अर्थशास्त्र के पाठ 7 सहसंबंध (Correlation) के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 11 में है एवं अर्थशास्त्र विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 11
SubjectEconomics
Chapter no.Chapter 7
Chapter Nameसहसंबंध (Correlation)
CategoryClass 11 Economics Notes in Hindi
MediumHindi
Class 11 Economics Chapter 7 सहसंबंध (Correlation) in Hindi

Chapter – 7 सहसंबंध

 सहसंबंध

  • सहसंबंध- correlation शब्द की उत्पत्ति co-relation से हुई है जिसका अर्थ है-पारस्परिक सम्बन्ध। सह-सम्बन्ध इस बात का सूचक होता है। दो विशेषताओं के बीच कितना अंतसंबंध है इससे इसकी जानकारी मिलती है। जैसे -किसी व्यक्ति कि दो विषय कि विशेषताओं का परीक्षण द्वारा मापन करना ओर प्रत्येक व्यक्ति के दोनों विषयों के अलग-अलग प्राप्ताकों को तालिका में जोड़ों के रुप में व्यवस्थित करके सांख्यिकीय गणना द्वारा दोनों में सम्बन्ध ज्ञात किया जाता है उसे सह-सम्बन्ध कहते है
  • सह-संबंध की तकनीक: श्रृंखलाओं में पाए जाने वाले संबंधों में मात्राओं की गणना जिस सांख्यिकी तकनीक से की जाती है सहसंबंध की की तकनीक कहा जाता है|
  • सह-संबंध क्या है ? सह-संबंध एक सांख्यिकीय विधि या तकनीक है जो विभिन्न चरों के मात्रात्मक संबंध की गणना करते हैं|
  • क्राक्सटन एवं काउडेन के अनुसार सह-संबंध: “जब संबंध संख्यात्मक स्वाभाव के हो तो उन संबंधों को जानने एवं मापने और एक संक्षिप्त सूत्र में स्पष्ट करने के उचित सांख्यिकीय यन्त्र को सह-सनबंध कहा जाता है|”
  • बोडिंगटन के अनुसार सह-संबंध: “जब कभी दो या दो से अधिक समूहों अथवा वर्गों अथवा श्रृंखलाओं में निश्चित संबंध पाया जाता है तो उसे सह-संबंध कहा जाता है|”

सह-संबंध के प्रकार :

  • धनात्मक सह-संबंध
  • ऋणात्मक सहसंबंध
  • शून्य सहसंबंध

धनात्मक सहसंबंध:-

जब किसी वस्तु, समूह अथवा घटना के किसी एक चर के मान में वृद्धि होने से दूसरे साहचर्य चर के मान में वृद्धि होती है अथवा उसके मान में कमी होने से दूसरे साहचर्य चर के मान में कमी होती है तो मान दोनों चरों के बीच पाए जाने वाले इस अनुरूप सम्बंध को धनात्मक सहसंबंध करते हैं।

उदाहरणार्थ– किसी गैस का समान दाब पर तापक्रम बढ़ने से उसका आयतन बढ़ना अथवा तापक्रम कम होने से उसका आयतन कम होना गैस के दो चरौ- तापक्रम और आयतन के बीच धनात्मक सहसंबंध है।

ऋणात्मक सहसंबंध:-

जब किसी वस्तु, समूह अथवा घटना के किसी एक चर के मान में वृद्धि होने से दूसरे साहचर्य चर के मान में कमी आती है अथवा उसके मान में कमी होने से दूसरे साहचर्य चर के मान में वृद्धि होती है तो इन दोनों चरों के बीच पाए जाने वाले इस प्रतिकूल सम्बंध को ऋणात्मक सहसंबंध कहते हैं।

उदाहरणार्थ– किसी गैस का समान तापक्रम पर दाब बढ़ने से उसका आयतन कम होना अथवा दाब कम होने से उसका आयतन बढ़ना, गैस के दो चरों-दाब और आयतन के बीच ऋणात्मक सहसंबंध है।

शून्य सहसंबंध-

जब किसी वस्तु , समूह अथवा घटना के किसी एक चर में परिवर्तन होने से दूसरे साहचर्य चर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो इन दोनों चरों के बीच के सम्बंध को शून्य सहसंबंध कहते हैं।

उदाहरणार्थ- किसी गैस के आयतन के बढ़ने अथवा घटने से उसके रासायनिक सूत्र में कोई अन्तर न होना गैस के दो चरों- आयतन और रासायनिक सूत्र के बीच शून्य सहसंबंध है।

सहसंबंध की उपयोगिता, आवश्यकता और महत्व-

विज्ञान का मूल आधार कार्य-कारण सम्बंध (Cause and Effect Relationship) है। इस सम्बंध की जानकारी के आधार पर किसी एक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन से किसी दूसरे क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन की भविष्यवाणी की जा सकती है। इस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में तो सहसंबंध की सबसे अधिक उपयोगिता है, उसकी सबसे अधिक आवश्यकता है और उसका सबसे अधिक महत्व है।

इस युग में मनोवैज्ञानिकों ने भी मानव व्यवहार के कारकों का पता लगाकर कार्य-कारण सम्बंधों की स्थापना की है। आज मानवीय व्यवहार में कार्य-कारण सम्बंधों को समझने के लिए सहसंबंध प्रविधियों (Correlation Techniques) का प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार आज मनोविज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में भी सहसंबंध की बड़ी उपयोगिता है, इसकी बड़ी आवश्यकता है और इसका बड़ा महत्व है।

  • पूर्वानुमान- सह-सम्बन्ध का प्रयोग पूर्वानुमान में किया जाता है, जिससे छात्रों को आगे की कक्षाओं में पदोन्नति कर चढ़ाया जा सके।
  • विश्वसनीयता- सह-सम्बन्ध का प्रयोग परीक्षणों की विश्वसनीयता का पता लगाने में किया जाता है। सांख्यिकी विधि द्वारा प्रयोग करके यह पता लगाया जाता है कि यह परीक्षण दो विभिन्न समय पर उसी वस्तु का परीक्षण करता है या नहीं।
  • वैधता- किसी भी परीक्षण का मूल्य सह-सम्बन्ध द्वारा निकाला जाता है। जब कभी भी परीक्षण बनाया जाता है तो वह दिये प्रश्नों की माप करता है।
  • परीक्षण निर्माण- सह सम्बन्ध का प्रयोग परीक्षण निर्माण में भी किया जाता है। जब कभी भी नया परीक्षण निर्मित किया जाता है, तब परीक्षण द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि उसका प्रत्येक एकांक दूसरे से सम्बन्धित है या नहीं अथवा पूरे परीक्षण से सम्बन्धित है या नहीं। इन सब सम्बन्धों का निर्धारण सह-सम्बन्ध की विधि द्वारा किया जाता है।

यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में सहसंबंध की उपयोगिता, आवश्यकता एवं महत्व का संक्षेप में वर्णन प्रस्तुत है

  • दो विषयों के सहसंबंध की सहायता से किसी छात्र की एक विषय की योग्यता के आधार पर उसकी दूसरे विषय की योग्यता का अनुमान लगाया जा सकता है।
  • दो विषयों के सहसंबंध की सहायता से यदि उपरोक्त अनुमान सही न निकले तो यह निदान करना आवश्यक हो जाता है कि उसका कारण क्या है। निदान करने के बाद उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था की जाती है।
  • अध्ययन विषयों के सहसंबंध की सहायता से छात्रों को शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देने में सहायता मिलती है।
  • क्रियात्मक अनुसन्धान में सहसंबंध का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है।

सहसंबंध की सीमाएँ-

  • किन्हीं दो विषयों के सहसंबंध से उनके बीच सहसम्बंधों के मूल कारणों का ज्ञान नहीं होता।
  • किन्हीं दो विषयों के सहसंबंध छात्रों की संख्या पर निर्भर करते हैं, छोटे समूह से प्राप्त सहसंबंध की अपेक्षा बड़े समूह से प्राप्त सहसंबंध अधिक विश्वसनीय होता है।
  • किन्हीं दो विषयों के बीच का सहसंबंध विषयों की प्रकृति के साथ-साथ छात्रों की प्रकृति (योग्यता, रूचि और अभिरूचि) पर भी निर्भर करता है। अत: एक निदर्श से प्राप्त सहसंबंध दूसरे निदर्श पर उसी रूप में लागू नहीं किया जा सकता।
  • सहसम्बंध गुणांक का अर्थापन परिस्थितियों पर निर्भर करता है इसलिए उसकी व्याख्या करना थोड़ा कठिन कार्य है।

सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा की व्याख्या

सहसम्बन्ध गुणांक की परिमाणात्मक मात्रा की गुणात्मक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-

  • पूर्ण सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में परिवर्तन समान अनुपात में तथा एक ही दिशा में होता है तो उनमें धनात्मक पूर्ण सहसम्बन्ध होता है। इसे सहसम्बन्ध गुणांक +1 से व्यक्त किया जाता है। इसके विपरीत जब दोनों चरों के मूल्यों में परिवर्तन समान अनुपात में परन्तु विपरीत दिशा में होता है तो उनमें ऋणात्मक पूर्ण सहसम्बन्ध होता है। इसे सहसम्बन्ध -1 द्वारा व्यक्त किया जाता है।
  • अति उच्च सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.81 से +.99 तक हो तो इसे धनात्मक अति उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.81 से -.99 होने पर ऋणात्मक उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है।
  • उच्च सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.61 से +.80 तक होती है तो इसे धनात्मक उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.61 से -.80 होने पर ऋणात्मक उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है।
  • साधारण सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.41 से +.60 तक होती है तो इसे धनात्मक साधारण सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.41 से -.60 होने पर ऋणात्मक साधारण सहसम्बन्ध कहा जाता है।
  • निम्न सहसम्बन्ध – जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.21 से +.40 तक होती है तो इसे धनात्मक निम्न सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.21 से -.40 होने पर ऋणात्मक निम्न सहसम्बन्धं कहा जाता है।
  • नगण्य या बहुत कम सहसम्बन्ध – जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.00 से +.20 तक होती है तो इसे धनात्मक नगण्य सहसम्बन्ध कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात् -.00 से -.20 होने पर ऋणात्मक नगण्य सहसम्बन्ध कहते हैं।
  • सहसम्बन्ध का अभाव- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों के परिवर्तनों में कोई भी सम्बन्ध न हो तो सहसम्बन्ध का अभाव होता है। इसे सहसम्बन्ध गुणांक शून्य द्वारा व्यक्त किया जाता है।

सहसम्बन्ध को प्रभावित करने वाले तत्व

सहसम्बन्ध को निम्नलिखित प्रमुख तत्व प्रभावित करते हैं-

  • जब संकलित आँकड़ों का न्यादर्श बड़ा होता है तो प्राप्त सहसम्बन्ध गुणांक कम होते हुये भी अधिक सार्थक होता है।
  • जब संकलित आँकड़ों का न्यादर्श छोटा होता है तो .5 से अधिक प्राप्त सहसम्बन्ध गुणांक ही सार्थक माना जाता है।
  • जब प्राप्त आँकड़ों में विचरणशीलता अधिक होती है तो सहसम्बन्ध गुणांक का मान कम होता है।
  • प्राप्त आँकड़ों में विचरणशीलता जितनी ही कम होती है, सहसम्बन्ध गुणांक उतना ही अधिक होता है।
  • वर्गीकृत आँकड़ों में वर्गान्तर का आकार भी सहसम्बन्ध को प्रभावित करता है। यदि वर्गान्तर का आकार बड़ा हो तथा प्राप्तांकों की संख्या कम हो तो सहसम्बन्ध का मान सत्य के अधिक निकट नहीं होगा। वर्गान्तर का आकार सामान्य होने पर सहसम्बन्ध गुणांक अधिक सार्थक होता है।

सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात करने की विधियाँ

सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात करने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित है-

  • आलेखीय विधि
  • विक्षेपचित्र विधि
  • गुणन विभ्रमिषा विधि
  • क्रम अन्तर विधि

1. आलेखीय विधि- यह विधि दो श्रेणियों में सहसम्बन्ध ज्ञात करने की अत्यन्त सरल विधि है। इस विधि द्वारा सहसम्बन्ध की अंकात्मक मात्रा का ज्ञान नहीं होता है वरन् इसकी दिशा और मात्रा का अनुमान लगाया जाता है।

2. रचना विधि- इसकी रचना में क्रम संख्या, समय और स्थान आदि को य-अक्ष पर और अन्य दोनों सम्बद्ध श्रेणियों को र-अक्ष पर समुचित पैमाना मानकर अंकित करते हैं। तदनुसर जितने पदयुग्म होते हैं, उतने ही बिन्दु ग्राफ पेपर पर अंकित करके दो वक्र अलग-अलग बना लेते हैं। दोनों श्रेणियों के मूल्यों में समानता और समान इकाई में व्यक्त होने पर उन्हें बायीं ओर के र-अक्ष पर ही मापदण्ड लेकर गणनाएँ की जाएँगी। इस प्रकार बने आलेख को सहसम्बन्ध आलेख भी कहा जाता है।

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