पाठ – 2
जूझ
In this post we have given the detailed notes of class 12 Hindi chapter 2 जूझ These notes are useful for the students who are going to appear in class 12 board exams
इस पोस्ट में क्लास 12 के हिंदी के पाठ 2 जूझ के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 12 में है एवं हिंदी विषय पढ़ रहे है।
Board | CBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Hindi (वितान) |
Chapter no. | Chapter 2 |
Chapter Name | जूझ |
Category | Class 12 Hindi Notes |
Medium | Hindi |
Chapter – 2 जूझ
जूझ’ मराठी के सुविख्यात कथाकार डॉ. आनंद यादव का बहुचर्चित एवं उल्लेखनीय आत्मकथात्मक उपन्यास है। इस पाठ में उपन्यास के कुछ अंश मात्र ही उद्धृत किए गए हैं। यह उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार (1990) से सम्मानित किया जा चुका है। ‘जूझ’ एक किशोर द्वारा भोगे हुए गवई (ग्रामीण) जीवन के खुरदरे यथार्थ और आंचलिक परिवेश की जीवंत गाथा है। अपने बचपन को याद करते हुए लेखक कहता है कि मेरा मन पाठशाला जाने के लिए बेचैन रहता था। परंतु मेरे पिता मुझे पाठशाला नहीं भेजना चाहते थे। वे स्वयं कोई काम न करके खेत का सारा काम मुझसे करवाते थे। इसलिए उन्हें मेरा पाठशाला जाना बिलकुल भी पसंद नहीं था।
एक दिन जब लेखक साथ कंडे थापने में अपनी माँ की सहायता कर रहा था तो वह अपनी माँ से पाठशाला जाने की इच्छा व्यक्त करता है। परंतु माँ भी आनंदा (लेखक) के पिता से बहुत डरती थी इसलिए वह अपने बेटे का खुला समर्थन नहीं कर सकी। लेखक स्वयं अपनी माँ से कहता है कि खेत के लगभग वे सभी काम खत्म हो गए जो मैं कर सकता था इसलिए तू मेरे पढ़ने की बात दत्ता जी राव सरकार से क्यों नहीं करती। चूंकि लेखक के पिता दत्ता जी राव के सामने नतमस्तक हो जाते थे और उनकी कोई भी बात मानने के लिए। बाध्य थे इसलिए लेखक को लगता है कि दत्ता जी राव ही मेरे पाठशाला का रास्ता खोल सकते हैं।
रात के समय माँ-बेटा दोनों दत्ता जी राव के घर अपनी फ़रियाद लेकर जाते हैं। माँ दत्ता जी राव को सब कुछ बता देती है कि वह (पिता) सारा दिन बाजार में रखमाबाई के पास गुजार देता है, और खेतों में काम आनंदा को करना पड़ता है। यह बात सुनकर दत्ता जी राव चिढ़ गए और उन्होंने लेखक के पिता को समझाने का आश्वासन देकर दोनों को घर भेज दिया।
दत्ता जी राव के बाड़े का बुलावा दादा (पिता जी) के लिए सम्मान की बात थी इसलिए बड़ी खुशी से दादा दत्ता जी राव के बाड़े में जाते हैं। आधे घंटे बाद बुलाने के बहाने लेखक भी वहीं चला जाता है। दत्ता जी राव लेखक को भी वहीं बैठा लेते हैं। बातचीत में दत्ता -जी राव लेखक से पूछते हैं, “कौन सी कक्षा में पढ़ता है रे तू?” लेखक कहता है, “जी पाँचवीं में पढ़ता था किंतु अब नहीं जाता हूँ। वार्तालाप में लेखक दत्ता जी राव को यह बता देता है कि मुझे पाठशाला दादा नहीं जाने देते। दत्ता जी ने दादा पर खूब गुस्सा किया। “तू लुगाई (पत्नी) और बच्चों को काम में जोत कर किस तरह खुद गाँवभर में खुले साँड की तरह घूमता है।”
अंत में दत्ता जी आनंदा (लेखक) को सुबह पाठशाला.जाने को कहते हैं। दादा मेरे (आनंद) के पाठशाला जाने पर मान तो गए परंतु पाठशाला ग्यारह बजे होती। है इसलिए दिन निकलते ही खेत पर हाजिर होने के बाद खेत से सीधे पाठशाला जाना, सवेरे पाठशाला जाने के लिए बस्ता खेत में ही ले आना, छुट्टी होते ही सीधा खेत में आना और जब खेत में काम अधिक हो तो पाठशाला से गैर-हाजिर भी हो जाना आदि आदेश भी देते. हैं। आनंदा दादा की सारी बातें मंजूर कर लेता है। उसका मन आनंद से उमड़ रहा था। परंतु दादा का मन आनंदा को पाठशाला भेजने के लिए अभी भी तैयार नहीं था। वे फिर कहते हैं, “हाँ। अगर किसी दिन खेत में नहीं आया तो गाँव में जहाँ मिलेगा। वहीं कुचलता हूँ कि नहीं-तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बलिस्टर नहीं होनेवाला है तू? आनंदा गरदन नीची करके खाना खाने ।
लगा था। अगले दिन आनंदा का पाठशाला में जाना फिर शुरू हो गया। वह गरमी-सरदी, हवा-पानी, भूख-प्यास आदि की बिलकुल भी परवाह नहीं करता था। खेतों के काम की चक्की में पिसते रहने से अब उसे छुटकारा मिल गया था। खेतों के काम की चक्की की अपेक्षा पाठशाला में मास्टर की छड़ी की मार आनंदा को अधिक अच्छी लगती थी। वह इस मार को भी मजे में सहन कर रहा था। गरमी की कड़क दोपहरी का समय पाठशाला की छाया में व्यतीत हो गया। आनंदा (लेखक) की पांचवीं कक्षा में उसके पहचान के दो ही लड़के थे। उसकी पहचान के सभी लड़के अगली कक्षा में चले गए थे। अपनी उम्र से कम उम्र के बच्चों के साथ कक्षा में बैठना आनंदा को बुरा लग रहा था। पुरानी पुस्तकों को वह लट्ठे के बने बस्ते में ले गया था। लेकिन वे अब पुरानी हो चुकी थीं।
आनंदा (लेखक) की कक्षा में एक शरारती लडका ‘चहवाण’ भी था। वह सदा आनंदा की खिल्ली उडाया करता था। वह उसके मैले गमछे को कक्षा में इधर-उधर फेंकने लगता है इतने में मास्टर जी आ गए और गमछा टेबल पर ही रह गया। आनंदा की धड़कन बढ़ गई और उसका दिल धक-धक करने लगा। पूछता से मास्टर को जब यह पता चला कि यह शरारत चहवाण ने की है तो वे उसे खूब लताड़ते हैं। लेखक के बारे में पूछने के बाद उन्होंने वामन पंडित की एक कविता पढ़ाई छुट्टी के बाद भी कई शरारती लड़कों ने उसकी धोती कई बार खींची थी। आनंदा का मन उदास हो गया क्योंकि कक्षा में कोई भी अपना नहीं था परंतु आनंदा ने पाठशाला जाना बंद नहीं किया।
पाठशाला में मंत्री नामक मास्टर जी गणित पढ़ाया करते थे। वे प्रायः छड़ी का प्रयोग नहीं करते थे बल्कि कमर में घुसा लगाते थे। शरारती बच्चे उनके सामने उधम नहीं मचा सकते थे। वसंत पाटिल नाम का एक लड़का शरीर से दुबला-पतला, किंतु बहुत होशियार था। उसके सवाल अकसर ठीक हुआ करते थे। कक्षा में उसका खूब सम्मान था। यह वसंत पाटिल आनंदा से उम्र में छोटा था। क्योंकि आनंदा ने पाठशाला छोड़कर ग़लती की थी परंतु फिर भी मास्टर जी को कक्षा की मॉनीटरी आनंदा को ही सौंपनी पड़ी। आनंदा अब पहले से ज्यादा पढ़ाई करने लगा था। हमेशा कुछ न कुछ पढ़ता रहता था।
अब गणित के सवाल उसकी समझ में आने लगे थे। वह वसंत पाटिल के साथ दूसरी तरफ़ से बच्चों के सवाल जाँचने लगा। फलस्वरूप आनंदा और वसंत पाटिल की दोस्ती जमने लगी थी। मास्टर जी अब लेखक को ‘आनंदा’ कहकर पुकारने लगे थे। आनंदा की मास्टरों के साथ आत्मीयता बढ़ गई और पाठशाला में उसका विश्वास भी बढ़ गया। पी पाठशाला में न० वा० सौंदलगेकर मराठी के मास्टर थे। जब वे मराठी में कोई कविता पढ़ाते तो स्वयं भी उसमें खूब रम जाते थे।
उनके पास सुरीला गला, छंद की बढ़िया चाल और रसिकता सब कुछ था। उन्हें मराठी की कविताओं के साथ अंग्रेजी की कविताएँ भी कंठस्थ थीं। वे कविता को सुनाते-सुनाते अभिनय भी किया करते थे। वे स्वयं भी कविता लिखा करते थे। जब मास्टर जी अपनी लिखी कोई कविता सुनाते थे तो आनंदा उन्हें तल्लीनता के साथ सुना करता था। वह अपनी आँखों और प्राणों की सारी शक्ति लगाकर दम रोककर मास्टर जी के हाव-भाव, चाल, गति और रस का आनंद लेता था।
जब आनंदा खेत में काम करता था तो भी मास्टर जी के हाव-भाव, यति-गति और आरोह-अवरोह के अनुसार ही गाया करता था। वह कविता गाने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगा था। पानी से क्यारियाँ कब भर जाती थीं उसे पता ही नहीं चलता था। पहले आनंदा को अकेलापन कचोटता था परंतु अब वह कविता गाकर अपने अकेलेपन को खत्म कर सकता था। अब वह अपने आप से ही खेलने लगा था बल्कि अब उसे अकेलापन अच्छा लगने लगा था क्योंकि अकेलेपन में वह कविताएँ गाकर नाचता भी था और अभिनय भी करता था।
अब वह कुछ अपनी भी कविताएँ बनाने लगा। एक बार तो मास्टर जी के कहने पर उसने बड़ी कक्षा के बच्चों के सामने कविता सुनाई थी। इस तरह आनंदा के अब कुछ नए पंख निकल आए थे। वह अपने मराठी-मास्टर के घर से काव्य-संग्रह लाकर पढ़ता था। अब आनंदा को भी लगने लगा था कि वह खेतों और गाँव के दृश्यों को देखकर कविता लिख सकता है। वह भैंस चराते धराते फ़सलों और जंगली फूलों पर तुकबंदी कर कविता लिखने लगा था। जब किसी रविवार को कोई कविता बन जाती तो सोमवार को मास्टर जी को दिखाता था। मास्टर जी आनंदा को शाबाशी दिया करते थे। मास्टर जी यह भी बताते थे कि भाषा, छंद, लय, अलंकार और शुद्ध लेखन कविता को सुंदर बना देते हैं। मास्टर जी की ये सभी बातें उसे मास्टर जी के और नजदीक ले आई। । अब वह शब्दों के नशे में डूबने लगा था।
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