पाठ – 12
बाजार दर्शन
In this post we have given the detailed notes of class 12 Hindi chapter 12 बाजार दर्शन These notes are useful for the students who are going to appear in class 12 board exams
इस पोस्ट में क्लास 12 के हिंदी के पाठ 12 बाजार दर्शन के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 12 में है एवं हिंदी विषय पढ़ रहे है।
Board | CBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Hindi (आरोह) |
Chapter no. | Chapter 12 |
Chapter Name | बाजार दर्शन |
Category | Class 12 Hindi Notes |
Medium | Hindi |
Chapter – 12 बाज़ार दर्शन
बाजार दर्शन’ श्री जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण निबंध है जिसमें गहन वैचारिकता और साहित्य सुलभ लालित्य का मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है। यह निबंध उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की मूल अंतर वस्तु को समझाने में बेजोड़ है। जैनेंद्र जी ने इस निबंध के माध्यम से अपने परिचित एवं मित्रों से जुड़े अनुभवों को चित्रित किया है कि बाजार की जादुई ताकत कैसे हमें अपना गुलाम बना लेती है। उन्होंने यह भी बताया है कि अगर हम आवश्यकतानुसार बाजार का सदुपयोग करें तो उसका लाभ उठा सकते हैं लेकिन अगर हम जरूरत से दूर बाजार की चमक-दमक में फंस गए तो वह असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर हमें सदा के लिए बेकार बना सकता। है। इन्हीं भावों को लेखक ने अनेक प्रकार से बताने का प्रयास किया है।
लेखक बताता है कि एक बार उसका एक मित्र अपनी प्रिय पत्नी के साथ बाजार में एक मामूली-सी वस्तु खरीदने हेतु गए थे लेकिन जब – वे लौटकर आए तो उनके हाथ में बहुत-से सामान के बंडल थे। इस समाज में असंयमी एवं संयमी दोनों तरह के लोग होते हैं। कुछ ऐसे जो बेकार खर्च करते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी संयमी होते हैं, जो फ़िजूल सामान को फ़िजूल समझते हैं। ऐसे लोग अपव्यय न करते हुए केवल आवश्यकतानुरूप खर्च करते हैं। ये लोग ही पैसे को जोड़कर गर्वीले बने रहते हैं। लेखक कहता है कि वह मित्र आवश्यकता से । ज्यादा सामान ले आए और उनके पास रेल टिकट के लिए भी पैसे नहीं बचे। लेखक उसे समझाता है कि वह सामान पर्चेजिंग पावर के ।
अनुपात में लेकर आया है। – बाजार जो पूर्ण रूप से सजा-धजा होता है। वह ग्राहकों को अपने आकर्षण से आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूट ले। ग्राहक सब कुछ भूल जाएँ और बाजार को देखें। बाजार का आमंत्रण मूक होता है जो प्रत्येक के हृदय में इच्छा जगाता है और यह मनुष्य को असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए बेकार बना देता है। लेखक एक और अन्य मित्र के माध्यम से बताते हैं कि ये मित्र बाजार में दोपहर से पहले गए लेकिन संध्या के समय खाली हाथ वापिस आए।
उन्होंने खाली हाथ आने का यह कारण बताया कि वह सब कुछ खरीदना चाहता था इसीलिए इसी चाह में वह कुछ भी खरीदकर नहीं लाया। बाज़ार में जाने पर इच्छा घेर लेती है जिससे मन में दुख प्रकट होता है। या बाजार के रूप सौंदर्य का ऐसा जादू जो आँखों के रास्ते हृदय में प्रवेश करता है और चुंबक के समान मनुष्य को अपनी तरफ आकर्षित करता है। जेब भरी हो तो बाजार में जाने पर मनुष्य निर्णय नहीं कर पाता कि वह क्या-क्या सामान खरीदे क्योंकि उसे सभी सामान आरामसुख देनेवाले प्रतीत होते हैं लेकिन जादू का असर उतरते ही मनुष्य को फैंसी चीज़ों का आकर्षण कष्टदायक प्रतीत होने लगता है तब वह : दुखी हो उठता है।
मनुष्य को बाजार में मन को भरकर जाना चाहिए क्योंकि जैसे गरमी की लू में यदि पानी पीकर जाएँ तो लू की तपन व्यर्थ हो जाती है। । वैसे ही मन लक्ष्य से भरा हो तो बाजार का आकर्षण भी व्यर्थ हो जाएगा। आँख फोड़कर मनुष्य लोभ से नहीं बच सकता क्योंकि ऐसा: करके वह अपना ही अहित करता है। संसार का कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं है क्योंकि मनुष्य में यदि पूर्णता होती तो वह परमात्मा से अभिन्न महाशून्य बन जाता। अत: अपूर्ण होकर ही हम मनुष्य हैं।
सत्य ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हममें गहरा करता है तथा सत्य कर्म | सदा इस अपूर्णता की स्वीकृत के साथ होता है। लेखक एक चूर्ण बेचनेवाले अपने भगत पड़ोसी के माध्यम से कहते हैं कि उन्हें चूर्ण बेचने का कार्य करते बहुत समय हो गया है। लोग : उन्हें चूर्ण के नाम से बुलाते हैं। यदि वे व्यवसाय अपनाकर चूर्ण बेचते तो अब तक मालामाल हो जाते लेकिन वे अपने चूर्ण को अपने-आप ।
पेटी में रखकर बेचते हैं और केवल छह आने की कमाई होने पर बाकी चूर्ण बच्चों को मुफ्त बाँट देते हैं। लेखक बताते हैं कि इस सेठ भगत पर बाजार का जादू थोड़ा-सा भी नहीं चलता। वह जादू से दूर पैसे से निर्मोही बन मस्ती में अपना कार्य करता रहता है। । एक बार लेखक सड़क के किनारे पैदल चला जा रहा था कि एक मोटर उनके पास से धूल उड़ाती गुजर गई। उनको ऐसा लगा कि : – यह मुझपर पैसे की व्यंग्यशक्ति चलाकर गई हो कि उसके पास मोटर नहीं है। लेखक के मन में भी आता है कि उसने भी मोटरवाले। – माँ-बाप के यहाँ जन्म क्यों नहीं लिया। लेकिन यह पैसे की व्यंग्यशक्ति उस चूर्ण बेचनेवाले व्यक्ति पर नहीं चल सकती। – जी लेखक को बाजार चौक में मिले। बाजार पूरा सजा हुआ था लेकिन उसका आकर्षण भगत जी के मन को नहीं भेद सका।
वे बड़े स्टोर चौक बाजार से गुजरते हुए एक छोटे-से पंसारी की दुकान से अपनी ज़रूरत का सामान लेकर चल पड़ते हैं। उनके लिए चाँदनी चौक का – आमंत्रण व्यर्थ दिखाई पड़ता है क्योंकि अपना सामान खरीदने के बाद सारा बाजार उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। लेखक अंत में स्पष्ट करता है कि बाजार को सार्थकता वही मनुष्य देता है जो अपनी चाहत को जानता है। लेकिन जो अपनी इच्छाओं को नहीं जानते वे तो अपनी पर्चेजिंग पावर के गर्व में अपने धन से केवल एक विनाशक और व्यंग्य शक्ति ही बाजार को देते हैं। ऐसे मनुष्य । न तो बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न बाजार को सत्य लाभ दे सकते हैं। ऐसे लोग सद्भाव के हास में केवल कोरे ग्राहक का । व्यवहार करते हैं। सद्भाव से हीन बाजार मानवता के लिए विडंबना है और ऐसे बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीति का शास्त्र है।
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