विद्यापति के पद (CH- 9) Detailed Summary || Class 12 Hindi अंतरा (CH- 9) ||

पाठ – 9

विद्यापति के पद

In this post we have given the detailed notes of class 12 Hindi chapter 9 विद्यापति के पद These notes are useful for the students who are going to appear in class 12 board exams

इस पोस्ट में क्लास 12 के हिंदी के पाठ 9 विद्यापति के पद के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 12 में है एवं हिंदी विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHindi (अंतरा)
Chapter no.Chapter 9
Chapter Nameविद्यापति के पद
CategoryClass 12 Hindi Notes
MediumHindi
Class 12 Hindi Chapter 9 विद्यापति के पद

विद्यापति के पद 

विद्यापति जीवन परिचय

  • विद्यापति का जन्म लगभग 1380 ई. में बिहार के मधुबनी जिले के विस्पी नामक गाँव में हुआ था। यद्यपि उनकी जन्मतिथि के बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है और उनके संरक्षक मिथिला नरेश शिव सिंह के शासनकाल के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु के समय का अनुमान लगाया गया है। 

शिक्षा: – 

  • वह बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे, वे साहित्य, संगीत, ज्योतिष, दर्शन, इतिहास, न्याय, भूगोल के विद्वान थे। इसके अलावा उन्हें कई समकालीन भाषाओं, बोलियों का ज्ञान था।

प्रमुख रचनाएँ:- 

उनकी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं- 

  • कीर्तिलता
  • कीर्तिपताका
  • भूपरिक्रमा
  • पुरुष परीक्षा
  • लिखनावली
  • गोरक्ष विजय
  • मणिमंजरी नाटिका
  •  पदावली
  • शैवसर्वस्वसार
  • शैवसर्वस्वसार.प्रमाणभूत संग्रह’
  • गंगावाक्यावली
  • विभागसार
  • दानवाक्यावली
  • दुर्गाभक्तितरंगिणी
  • वर्षकृत्य
  • गयापत्तालक’। 

इन सब में सर्वाधिक लोकप्रिय रचना उनकी ‘पदावली’ मानी गई।

साहित्यिक विशेषताएं: –

  • उन्हें संस्कृत, अपभ्रंश, मैथिली भाषाओं का ज्ञान था।
  • वे आदि काल और भक्ति काल के संधि कवि हैं।
  • राधा-कृष्ण के प्रेम के आधार पर उन्होंने अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति दी है।
  • उनकी ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ दरबारी संस्कृति और कर्मकांड परंपरा के रूप में देखे जाते हैं। पड़ावली के श्लोक में भक्ति और श्रृंगार है और यही श्लोक उनकी प्रसिद्धि का आधार है।
  • तीज-त्योहार पर आज भी इन छंदों को गाया जाता है।

मृत्यु: – 1460

विद्यापति पाठ परिचय

(1)

के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास ।

हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास । ।

एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए ।

सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए । ।

मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल ।

गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल । ।

विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरू मन आस ।

आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास । ।

प्रसंग: – 

  • इन पंक्तियों में कवि विद्यापति जी ने नायिका के हृदय के वियोग को प्रस्तुत किया है। नायक यानी श्रीकृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा में बस गए हैं।

व्याख्या: –

  • सावन के महीने में नायिका अपनी प्रेयसी को याद कर रही होती है, वह नायक को एक पत्र भेजना चाहती है और अपनी सखी से पूछती है कि उसके प्रियतम को उसका पत्र कौन देगा, क्या उसके प्रियतम तक पत्र पहुंचने वाला कोई नहीं है।
  • इस पत्र में नायिका ने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। वह कहती है कि श्रावण का महीना आ गया है और वह अपने प्रियतम से विछोह सहन नहीं कर पा रही है, उसे असहनीय पीड़ा हो रही है। वह इस बड़ी इमारत में प्रियतम के बिना नहीं रह सकती है, वह इतनी पीड़ित है कि इस दुनिया में कोई भी उसका दर्द नहीं समझ सकता है।
  • श्रीकृष्ण तो स्वयं चले गए, साथ ही उसका मन भी उसके साथ चला गया। वह गोकुल छोड़कर मथुरा में बस गया है और यहां उसकी बदनामी हो रही है, वह कब वापस आएंगे। कवि विद्यापति जी नायिका को धैर्य रखने के लिए कहते हैं, वह कहते है कि इस कार्तिक महीने में आपके प्रियतम आपके पास वापस आएंगे।

(2)

सखि हे , कि पुछसि अनुभव मोए ।

सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए । ।

जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ।

सेहो मधुर बोल सवनहि सूनल स्नुति पथ परस न गेल । ।

कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि ।

लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल । ।

कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख । ।

विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक । ।

व्याख्या –

  • इन पंक्तियों में कवि ने राधा के असंतुष्ट हृदय का वर्णन किया है। राधा अपने पिछले अनुभवों को याद करके मुग्ध हो जाती है। उन्हें देखकर उनकी सखियाँ उनसे अपने अनुभव साझा करने को कहते हैं।
  • इस पर राधा अपनी सहेलियों से कहती है कि हे सखी मैं अपने अनुभव तुम्हें कैसे बताऊं, इसे तो मैं खुद नहीं समझ पाती। जितना मैं अपने प्रेम और रियतम का वर्णन करती हूं, उतना ही तिल एक नए जैसा हो जाता है। जीवन भर मैंने अपने प्रियतम का रूप निहारा है, लेकिन फिर भी मेरी आँखें संतुष्ट नहीं हुईं।
  • मैंने जीवन भर उनकी सुरीली आवाज सुनी है, फिर भी मेरे कान उनसे संतुष्ट नहीं हैं और मैंने उनके अलावा कहीं से भी इतनी मीठी बातें नहीं सुनी हैं। न जाने कितनी बसंत की रातें मैंने रंग राभास में बिताईं लेकिन फिर भी मैं उनका अर्थ नहीं समझ पायी। लाख प्रयास करके मैंने अपने प्रियतम को हृदय में रखा, फिर भी मेरे मन की ज्वाला शांत नहीं हुई।
  • यानी प्रेम में संतुष्ट होना संभव नहीं है। रसिकजन बहुत से ऐसे हैं जो रस का आनंद लेते हैं लेकिन वे इसका वास्तविक अर्थ भी नहीं समझते हैं। विद्यापति जी कहते हैं कि ऐसे लाखों लोग हैं जो इस तरह से प्रेम करते हैं, लेकिन उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो संतुष्ट हो सके।

(3)

कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,

मूदि रहए दु नयान ।

कोकिल – कलरव , मधुकर – धुनि सुनि ,

कर देइ झाँपइ कान । ।

माधब , सुन-सुन बचन हमारा ।

तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि –

गुनि – गुनि प्रेम तोहारा । ।

धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ ,

पुनि तहि उठइ न पारा ।

कातर दिठि करि , चौदिस हेरि-हेरि

नयन गरए जल – धारा । ।

तोहर बिरह दिन छन –छन तनु छिन –

चौदसि – चाँद – समान ।

भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति

लखिमादेइ – रमान । ।

व्याख्या –

  • इन पंक्तियों में कवि ने नायिका की विरह अवस्था का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में नायिका की सहेली नायक को अपनी दशा बता रही है।
  • वह कहती हैं कि कमल के समान सुंदर मुख वाली राधा की हालत ऐसी है कि वह खिलते हुए सुंदर फूलों को देखना नहीं चाहती, उन्हें देखकर आंखें बंद कर लेती हैं। कोयल की कुहू और भँवरो का गुंजन सुनकर वह अपने कान बंद कर लेती है। क्योंकि ये सभी मिलन के प्रतीक हैं और जिससे विरह के समय इन्हें बहुत कष्ट होता है।
  • वह कृष्ण से कहती है कि माधव, तुम मेरी बात सुनो, राधा तुम्हारे प्रेम को याद करके विरह के दर्द से दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही है। कितनी बार जब वह जमीन पर बैठती है तो फिर उठ भी नहीं पाती है। वह व्याकुल होकर सब दिशाओं में तुमको ढूंढती रहती है और फिर तुम्हे न पाकर उसकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं।
  • तुम्हारे विरह में वो धीरे धीरे क्षीण होती जा रही है, ठीक वैसे ही जैसे चौदहवीं रात को चांद ढल जाता है। आगे कि पंक्तियों में, विद्यापति जी राजा शिव सिंह की बड़ाई करते हैं कि वह विरह के दर्द को जानते हैं और इसलिए अपनी पत्नी लखीमा देवी के साथ रहते हैं।

विशेष 

  • ‘धरनी धरि धनि’ ‘स्रवनहि सुनल स्रुति’  व  ‘पथ परस’ में अनुप्रास अलंकार है
  • प्रेम के उदात रूप का वर्णन है।
  • भाषा में रसात्मकता है।
  • नायिका की विरह वेदना का वर्णन है। 
  • श्रृंगार रस के संयोग पक्ष का वर्णन है। 
  • माधुर्य गुण का सुन्दर उपयोग है। 
  • ‘गुनि गुनि’, ‘छन छन’ में वीप्सा अलंकार है
  • विरह का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है

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