पाठ – 10
उपनिवेशवाद और देहात
In this post we have given the detailed notes of class 12 History Chapter 10 Upniveshwad or Dehat (Colonialism and the Countryside) in Hindi. These notes are useful for the students who are going to appear in class 12 board exams.
इस पोस्ट में क्लास 12 के इतिहास के पाठ 10 उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside) के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 12 में है एवं इतिहास विषय पढ़ रहे है।
Board | CBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board |
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter no. | Chapter 10 |
Chapter Name | उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside) |
Category | Class 12 History Notes in Hindi |
Medium | Hindi |
उपनिवेशवाद और देहात
- मुगल दौर में ही अंग्रेज भारत में प्रवेश कर चुके थे
- जैसे-जैसे मुगल शासन कमजोर हुआ अंग्रेजों ने अपनी शक्ति बढ़ाई और भारत पर शासन स्थापित किया
- भारत में अंग्रेजी शासन की शुरुआत बंगाल से हुई।
प्लासी का युद्ध – 1757
- 1757 में बंगाल की एक जगह प्लासी में बंगाल के नवाब और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ इसे ही प्लासी का युद्ध कहा जाता है।
- बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना और अंग्रेजों की सेना के बीच हुए इस युद्ध में अंग्रेजो की जीत हुई।
- यहीं से भारत में अंग्रेजों के शासन की शुरुआत हुई।
कर व्यवस्था
- बंगाल पर विजय प्राप्त करने के बाद अंग्रेज़ो ने कर वसूलने की व्यवस्था बनाई
- अंग्रेजों के दौर में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कर व्यवस्था प्रचलित थी।
- इस्तमरारी बंदोबस्त (जमींदारी व्यवस्था, स्थाई बंदोबस्त)
- रैयतवाड़ी व्यवस्था
- महालवाड़ी व्यवस्था
इस्तमरारी बंदोबस्त
- इस्तमरारी बंदोबस्त को जमींदारी बंदोबस्त या स्थाई बंदोबस्त भी कहा जाता है।
- इस व्यवस्था को 1793 में चार्ल्स कार्नवालिस द्वारा लागू किया गया।
- उस समय बंगाल में वर्तमान का बिहार, बंगाल और उड़ीसा वाला क्षेत्र शामिल था। इसी क्षेत्र में इस्तमरारी बंदोबस्त की व्यवस्था को लागू किया गया।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों को नियुक्त किया गया।
- वह सभी लोग जो अंग्रेजी शासन से पहले शक्तिशाली थे (नवाब, पुराने राजा, साहूकार आदि), अंग्रेजों द्वारा इन्हें जमींदार बना दिया गया।
- हर जमींदार को कुछ गांव दिए गए जहां से वह कर इकट्ठा कर सकता था।
- ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा हर जमींदार से एक निश्चित रकम कर के रूप में ली जाती थी।
- जमींदार किसानों से अपनी इच्छा अनुसार कितना भी कर वसूल सकते थे
- इस व्यवस्था को स्थाई बंदोबस्त कहा गया। क्योंकि इसमें जमीदारों को एक स्थाई रकम ईस्ट इंडिया कंपनी को देनी होती थी।
- इसे जमींदारी व्यवस्था कहा गया क्योंकि इस व्यवस्था में जमींदार महत्वपूर्ण थे
रैयतवाड़ी व्यवस्था
- इस व्यवस्था को 1820 में टॉमस मुनरो द्वारा लागू किया गया।
- यह व्यवस्था भारत के दक्कन क्षेत्र में लागू की गई थी।
- इस व्यवस्था में किसान स्वयं जाकर अपना कर जमा करवाता था।
- इस व्यवस्था को रैयतवाड़ी व्यवस्था कहा गया क्योंकि रैयत का अर्थ किसान होता है।
महालवाड़ी व्यवस्था
- इस व्यवस्था को अंग्रेजों द्वारा 1833 में लागू किया गया।
- इस व्यवस्था में एक व्यक्ति द्वारा पूरे गांव का कर इकट्ठा किया जाता था और फिर उसे अंग्रेजी शासन को जमा करवाया जाता था।
- इसे भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में लागू किया गया।
- इस व्यवस्था को महालवाड़ी कहा गया। है क्योकि महाल का अर्थ गांव होता है।
बंगाल और अंग्रेजी शासन
- बंगाल में अंग्रेजी शासन की स्थापना होने के बाद अंग्रेजों ने बंगाल की व्यवस्था को बदलने के प्रयास किये ताकि वह ठीक से शासन कर सकें
- अंग्रेजी शासन की शुरुआत के समय बंगाल में गांव की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी।
- परंतु यह कृषि व्यवस्था अनेकों समस्याओं और संसाधनों की कमी से जूझ रही थी।
- अंग्रेजों को एहसास हुआ कि इस व्यवस्था को सुधारने के लिए कृषि में निवेश बढ़ाने की जरूरत है।
- कृषि में निवेश बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने एक व्यवस्था बनाई जिसे इस्तमरारी बंदोबस्त कहा गया।
- इस व्यवस्था में पुराने शासन के सभी शक्तिशाली लोगों (नवाब, पुराने राजा, साहूकार) को जमींदार नियुक्त किया गया।
- इन सभी जमींदारों को अंग्रेजी शासन द्वारा गांव से कर वसूलने की जिम्मेदारी सौंपी गई
- अंग्रेजी सरकार इन जमीदारों से एक निश्चित रकम कर के रूप में लेती थी और जमीदारों को किसानों से अपनी इच्छानुसार कर वसूलने की छूट थी।
- इसे ही स्थाई और जमींदारी बंदोबस्त भी कहा जाता था।
- जमींदार जमीन के मालिक नहीं हुआ करते थे बल्कि वह अंग्रेजी शासन के लिए कर वसूलने का कार्य किया करते थे
- अंग्रेजी शासन को आशा थी कि इस व्यवस्था के कारण कृषि में निवेश बढ़ेगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा
- परंतु ऐसा नहीं हुआ, जमींदारों को किसानों से कर वसूलने में अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ा जिस वजह से वह अंग्रेजी शासन को ठीक समय पर कर नहीं दे सके
जमींदार ठीक समय पर राजस्व क्यों नहीं दे पाते थे ?
शुरू के कुछ वर्षों में यह व्यवस्था ठीक प्रकार से चली परंतु धीरे-धीरे इस व्यवस्था में समस्याएँ उत्पन्न होने लगी और जमींदार एवं किसान दोनों का शोषण होने लगा
ऐसा होने के अनेकों कारण थे
जमींदारों की लापरवाही
- इस्तमरारी व्यवस्था के लागू होने के बाद एक लंबे समय तक जमींदारों ने इसे गंभीर रूप से नहीं लिया
- जिस वजह से जमींदारों पर बकाया राजस्व बढ़ता गया और एक समय बाद उनके लिए यह राजस्व चुकाना लगभग नामुमकिन हो गया।
बहुत ज्यादा राजस्व मांग
- शुरुआती व्यवस्था में राजस्व मांग बहुत ज्यादा अधिक थी यानी कि जमींदारों को बहुत ज्यादा कर अंग्रेजी शासन को चुकाना होता था।
- इतना कर वह किसानों से वसूल नहीं कर पाते थे जिस वजह से बकाया कर की राशि बढ़ती गई
फसलों की कम कीमत
- जिस दौर में इस व्यवस्था को लागू किया गया, उस दौर में फसलों की कीमत बहुत कम थी।
- जिस वजह से इतनी ऊंची मात्रा में कर चुका पाना किसानों के बस में नहीं था और किसानों से कर एकत्रित ना कर पाने के कारण जमींदार भी सरकार को कर नहीं दे पा रहे थे
असमान व्यवस्था
- कर की व्यवस्था असमान थी।
- परिस्थिति चाहे कैसी भी हो निश्चित कर को सही समय पर चुकाना होता था।
- कई बार अच्छी फसल ना होने के कारण किसान जमींदारों को कर नहीं दे पाते थे परंतु जमींदारों को इस स्थिति में कोई छूट नहीं दी जाती थी।
सूर्यास्त विधि
- इस विधि के अनुसार यदि जमींदार निश्चित तिथि में सूर्यास्त होने तक अपना राजस्व नहीं चुका पाते थे तो कर की कीमत दोगुनी कर दी जाती थी और कई स्थितियों में जमींदारों की संपत्ति को नीलम भी कर दिया जाता था।
जमींदारों की शक्तियों पर नियंत्रण
- अंग्रेजी शासन द्वारा जमींदारों की शक्तियों को नियंत्रित कर दिया गया था।
- जिस वजह से वह ना तो अपनी सेना रख सकते थे और ना ही किसानों पर दबाव बनाकर कर वसूल सकते थे
- इस वजह से जमींदारों को कर इकट्ठा करने के लिए अनेकों समस्याओं का सामना करना पड़ता था।
किसानों का जानबूझकर कर ना देना
- कभी-कभी किसान जानबूझकर कर देने में देरी करते थे
- जमींदारों को ऐसे परेशानी में देख किसान बहुत खुश हुआ करते थे
- ऐसी स्थिति में जमींदार किसानों पर मुकदमा तो चला सकता था परंतु उन पर अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकता था।
- मुकदमे की कानूनी प्रक्रिया भी बहुत लंबी होती थी
- इसी वजह से मुक़दमा करने के बाद भी जमींदार कर इकट्ठा नहीं कर पाते थे
जमींदारों द्वारा राजस्व ना दिए जाने पर
- यदि जमींदार अंग्रेजी शासन द्वारा निर्धारित राजस्व को सही समय पर नहीं दे पाते थे तो उनकी संपत्तियों को नीलाम कर दिया जाता था।
- जमींदारों की संपत्तियों और भूमि को नीलाम कर के अंग्रेजी शासन कर की वसूली किया करता था।
- नीलामी के अंदर जमींदार की संपत्तियों की बोली लगाई जाती थी।
- वह व्यक्ति जो सबसे अधिक बोली लगाता था उसे वह जमीन और संपत्तिया बेच दी जाती थी।
- इस तरह अंग्रेजी शासन जमीदारों द्वारा राजस्व जमा ना किए जाने पर राजस्व वसूलता था।
जमींदार और नीलामी
राजस्व ना चुका पाने की स्थिति में जमींदारों की संपत्तियों को नीलाम कर दिया जाता था परंतु इस स्थिति में जमींदार अनेकों तरीकों से अपनी संपत्तियों को बचाने के प्रयास किया करते थे
फर्जी बिक्री
- कई बार जब जमींदारों की संपत्तियों को नीलाम किया जाता था, तो इन नीलामियों में जमींदार के लोग, उसके रिश्तेदार या उसके जान पहचान वाले जमींदार ऊंची बोली लगाकर जमीन को खरीद लिया करते थे
- आगे चलकर वह नीलामी की राशि देने से मना कर दिया करते थे जिस वजह से संपत्तियों को दोबारा नीलाम करवाना पड़ता था।
- दोबारा इसी तरीके से जमींदार के जानकारों द्वारा संपत्ति को खरीद लिया जाता था और अंत में दोबारा राशि देने से मना कर दिया जाता था।
- इस तरह यह व्यवस्था चलती रहती थी और अंत में जमींदार को ही बहुत कम दाम में यह जमीन बेच दी जाती थी।
कब्जा ना देना
- कई स्थितियों में जब कोई बाहर का व्यक्ति जमीन खरीद लेता था, तो उसे जमीनों पर कब्जा नहीं दिया जाता था या डरा धमका कर भगा दिया जाता था।
ताकत द्वारा
- कई बार पुराने जमींदार के लठयाल (गुंडे) नए खरीददार को मारपीट कर भगा दिया करते थे और पुराने किसान भी नए लोगों को जमीन में नहीं घुसने देते थे
महिलाओं को हस्तांतरित करके
- कई बार जमीदारों द्वारा अपनी संपत्ति को महिलाओं के नाम कर दिया जाता था क्योंकि अंग्रेजी शासन महिलाओं से जमीन नहीं छीनता था।
बर्दवान की नीलामी की घटना
- 1797 में बर्दवान में एक नीलामी की गई
- इस नीलामी में बर्दवान के राजा की संपत्ति बेची जा रही थी क्योंकि राजा ने राजस्व राशि नहीं चुकाई थी।
- बोली लगाने के लिए नीलामी में अनेकों लोग शामिल हुए और अंत में सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को संपत्तिया बेच दी गई
- परंतु बाद में पता चला कि नीलामी में शामिल ज्यादातर खरीददार राजा के नौकर या उसके जान पहचान वाले थे
- इस नीलामी में हुई 95% से ज्यादा खरीदारी फ़र्ज़ी थी।
- इस नीलामी से पहले राजा द्वारा अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा पहले ही अपनी माता के नाम कर दिया गया था।
जोतदार
- 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में कुछ धनी किसानों का उदय हुआ
- यह वें किसान थे, जिनके पास बड़ी मात्रा में भू संपत्ति थी।
- इनकी जमीन पर बटाईदार किसानों द्वारा खेती की जाती थी
- यह बटाईदार किसान अपने हल और औजार लाकर खुद खेती किया करते थे और अंत में फसल का आधा भाग भूमि के मालिकों यानी इन धनी किसानों को दे दिया करते थे
- इन बड़े किसानों को ही जोतदार कहा गया, कुछ जगहों पर इन्हें हवलदार, गान्टीदार या मंडल भी कहा जाता था।
- इन जोतदारों का गांव और उस गांव के किसानों पर अत्याधिक प्रभाव होता था।
- जमींदार ज्यादातर शहरों में रहा करते थे जबकि जोतदार गांव में ही रहते थे इस वजह से यह किसानों के ज्यादा निकट हुआ करते थे
- मुश्किल परिस्थितियों में जोतदार किसानों की मदद भी किया करते थे जिस वजह से किसान जोतदारों का समर्थन किया करते थे
- जमीदारों द्वारा गांव में कर को बढ़ाने के अनेकों प्रयास किए गए परंतु जोतदारों ने इसका खुलकर विरोध
- कई परिस्थितियों में जोतदार, किसानों को कर देने से मना करते थे
- इस वजह से जमींदारों को कर नहीं मिल पाता था और उनकी संपत्तियों को नीलाम किया जाता था।
- इस स्थिति में यह जोतदार जाकर उन जमींदारों की संपत्तियों को खरीद लिया करते थे और लाभ कमाते थे
- उस समय उत्तर बंगाल में जोतदार सबसे ज्यादा शक्तिशाली थे
इंग्लैंड और ईस्ट इंडिया कंपनी
- ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत इंग्लैंड में की गई थी।
- 1960 के दशक के बाद जब से ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में अपने शासन को स्थापित किया तभी से इंग्लैंड की व्यवस्था द्वारा उस पर नजर रखी जा रही थी।
- उस दौर मे ईस्ट इंडिया कंपनी इंग्लैंड की एकमात्र कंपनी थी जो भारत और चीन के साथ व्यापार कर सकती थी।
- इसी वजह से इंग्लैंड के कई व्यापारी वर्गों ने इसका विरोध करना शुरू किया क्योंकि वह भी भारत और चीन में आकर व्यापार करना चाहते थे
ईस्ट इंडिया कंपनी की आलोचना
- कई राजनीतिक समूहों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की आलोचना की
- उन्होंने कहा कि
- बंगाल पर हुई विजय का लाभ केवल ईस्ट इंडिया कंपनी को मिल रहा है।
- इंग्लैंड को पर्याप्त मात्रा में कर नहीं दिया जा रहा है।
- ईस्ट इंडिया कंपनी में भ्रष्टाचार और अधिकारियों का लालच बढ़ता जा रहा है।
- कंपनी बंगाल में अव्यवस्थित रूप से शासन कर रही है।
- इन्हीं सब आलोचनाओं के समर्थन में ब्रिटेन की संसद के अंदर कई रिपोर्टे पेश की गई
- इन रिपोर्टों में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन और कार्यों की जानकारी थी।
- इन रिपोर्टों में सबसे महत्वपूर्ण थी, पांचवी रिपोर्ट
पांचवी रिपोर्ट
- यह 1002 पन्नों की एक रिपोर्ट थी।
- इसमें जमीदारों और किसानों की अर्ज़िया शामिल थी जिसमें उन्होंने कर माफी की अपील की थी।
- इसमें अलग-अलग जिलों के कलेक्टर की रिपोर्ट भी शामिल थी।
- साथ ही साथ इसमें राजस्व इकट्ठा करने से संबंधित जानकारी भी थी।
- इसमें जमींदारी के नीलाम होने और जमीदारों द्वारा अपनी संपत्तियों को बचाने के लिए अपनाए जाने वाले नए-नए हथकंडो का वर्णन भी किया गया था।
पांचवी रिपोर्ट और ईस्ट इंडिया कंपनी
- इन सभी रिपोर्टों पर ब्रिटेन की संसद में गंभीर बहस की गई
- इन रिपोर्टों के आधार पर 18 वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में कंपनी के प्रशासन से संबंधित कई अधिनियम (कानून) बनाए गए
- कंपनी के कामकाज की जांच करने के लिए समितियां बनाई गई
- भारत में प्रशासन से संबंधित रिपोर्टों को भेजने के लिए कंपनी को मजबूर किया गया।
पहाड़ी लोग
- ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान बंगाल में स्थित राजमहल की पहाड़ियों पर पहाड़ी लोग रहा करते थे
- यह लोग जंगलों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे
- यह इमली के पेड़ों के बीच बनी झोपड़ियों में रहते थे और पूरे जंगल को अपनी निजी भूमि मानते थे
- जीवन निर्वाह के लिए इनके द्वारा झूम खेती की जाती थी। जिसमें यह जंगल में स्थित झाड़ियों को काटकर जमीन को साफ कर लेते थे और फिर अपने कुदाल की मदद से जमीन को खोदकर वहां पर खेती करते थे यह मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा और दाल उगाते थे
- जब तक जमीन उपजाऊ रहती थी उस जमीन पर खेती की जाती थी उसके बाद यह जगह बदल कर अन्य जमीन पर भी इसी तरह से खेती किया करते थे
- यह बाहरी लोगों के जंगल में प्रवेश का विरोध किया करते थे और किसी बाहरी व्यक्ति के जंगल में प्रवेश करने पर उसे लूट कर भगा दिया करते थे
- इन सभी का एक मुखिया हुआ करता था जो समूह में एकता बनाए रखने का काम करता था इन पहाड़ी लोगों और मैदानी लोगों में लड़ाई होने पर वह मुखिया अपनी जनजाति का नेतृत्व किया करता था
- यह अक्सर मैदानी इलाकों पर आक्रमण किया करते थे यह आक्रमण खाद्यान्न, पशुओं और अपनी ताकत को दिखाने के लिए किए जाते थे
- मैदानी इलाकों में रहने वाले जमींदारों को शांति बनाए रखने के लिए इन पहाड़ी जनजातियों के मुखिया को कर देना पड़ता था। इसी प्रकार यदि कोई व्यापारी पहाड़ों से होकर गुजरता था, तो उसे भी इन पहाड़ी जनजातियों के मुखिया को कर देना पड़ता था ताकि यह जनजातियां उस पर हमला ना करें
अंग्रेज और पहाड़ी जनजाति
- 18 वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई को प्रोत्साहित किया
- इस कटाई के कारण खेती करने योग्य भूमि में वृद्धि होती जिससे अंग्रेजों को अधिक राजस्व मिल पाता
- जंगल में रहने वाले लोगों को अंग्रेज असभ्य और उपद्रवी मानते थे
- उन्होंने इन लोगों को नियंत्रण में करके सभ्य बनाने और खेती के कामों में लगाने का निश्चय किया
- इससे खेती कार्य में वृद्धि होती और अंग्रेजों को और अधिक कर मिल पाता
- धीरे-धीरे जंगलों का सफाया किया जाने लगा और इन क्षेत्रों में कृषि बढ़ने लगी
- इस सभी वजहों से पहाड़ी लोगों को ऐसा लगा कि मैदानी क्षेत्र के लोग उनके जंगलों पर कब्जा करना चाहते हैं और उन्हें मारना चाहते हैं इस वजह से पहाड़ी लोगों ने मैदानी लोगों पर और ज्यादा हमले करने शुरू कर दिए
- इन आक्रमणों को रोकने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने 1770 के दशक में पहाड़ी लोगों को मारने की क्रूर नीति अपनाई परंतु यह पूरी तरह से असफल रही
- 1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर अगस्तस क्वींसलैंड ने शांति की एक नीति प्रस्तावित की
- इस नीति के अनुसार पहाड़ी मुखिया को हर वर्ष भत्ता दिया जाता था ताकि वह मैदानी क्षेत्रों पर आक्रमण ना करें और शांति बनाए रखें
- परंतु बहुत से मुखियाओं ने यह भत्ता लेने से मना कर दिया और जिन्होंने यह भत्ता लिया उन्हें उनके क्षेत्र के निवासियों द्वारा मुखिया के पद से हटा दिया गया।
बुकानन और राजमहल की पहाड़ियां
- 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया
- बुकानन एक अंग्रेजी अधिकारी था।
- वह जहां भी गया उसने हर बात का वर्णन अपनी डायरी में लिखा
- उसने लिखा कि यह क्षेत्र एक खतरनाक क्षेत्र था यहां बहुत ही कम यात्री आने की हिम्मत कर सकते थे
- उसके अनुसार पहाड़ियों के निवासियों का व्यवहार शत्रुता पूर्ण था और यह बाहरी अधिकारियों से बात करने को तैयार नहीं थे
- वे अंग्रेजों को एक ऐसी शक्ति के रूप में देखते थे जो जंगलों को नष्ट करके पहाड़ी लोगों के जीने के तरीके को बदलना चाहते थे
संथाल
- पहाड़ी समुदायों को सभ्य बनाने और कृषि के लिए प्रेरित करने के लिए अंग्रेज़ो द्वारा किये गए किस भी प्रयास का कोई लाभ नहीं हुआ।
- अब अंग्रेज़ो को ऐसे लोगो की ज़रूरत थी जो जंगल को साफ़ करके बनाये गए क्षेत्रों में रह सके और खेती कर सके
- इस दौर में अंग्रेजों का ध्यान संथाल समुदाय की ओर गया।
- 1780 के दशक के आसपास संथाल बंगाल में आने लगे
- उस दौर में जमींदारों द्वारा इन्हें खेती करने के लिए भाड़े पर रखा जाता था।
- अंग्रेजों द्वारा इन्हें पहाड़ी इलाकों में बसाया गया ताकि यह कृषि करके अंग्रेजी राजस्व में वृद्धि कर सकें
- अंग्रेजी सरकार ने संथालो को जमीन देकर राजमहल पहाड़ियों की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया
- यहां पर जमीन के एक बहुत बड़े हिस्से को संथालो की भूमि घोषित कर दिया गया और इस इलाके को दामिन – ई – कोह का नाम दिया गया।
- इस क्षेत्र के चारों ओर सीमाएं बनाई गई और नक्शा तैयार किया गया।
- इस क्षेत्र में आने के बाद संथालो की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ने लगी
- संथालो के गांव की संख्या 1830 में लगभग 40 के आसपास थी जो 1851 में बढ़कर 1473 तक पहुंच गई और इसी दौर में जनसंख्या 3000 से बढ़कर 82000 से भी अधिक हो गई
- संथालो के आने की वजह से पहाड़ी लोगों के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा
- इनकी वजह से उन्हें जंगलों में और अंदर जाना पड़ा जहां पर उपजाऊ जमीन का अभाव था।
- शिकारियों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ा
- दूसरी तरफ संथालो का जीवन पहले से बेहतर हो गया।
- अब वह खानाबदोश की जगह एक स्थाई खेती करने वाले किसान के रूप में रहने लगे
- धीरे-धीरे बाजार के लिए वाणिज्यिक फसलों की खेती करने लगे और व्यापारियों और साहूकारों के साथ लेन-देन भी करने लगे
- इसी दौर में अंग्रेजी शासन द्वारा कर में वृद्धि की गई और साहूकार भी ब्याज की ऊंची दरे वसूलने लगे
- ऐसी स्थिति को देखते हुए संथालो ने 1850 के दशक में जमीदारों साहूकारों और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया
- इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप संथाल परगना नामक क्षेत्र का निर्माण किया गया।
Note: – कुदाल को पहाड़ी लोगो और हल को संथालो का प्रतीक मन जाता है क्योकि पहाड़ी लोग कुदाल से ज़मीन खोद कर खेती करते थे जबकि संथालो द्वारा खेती के लिए हल का प्रयोग किया जाता था।
रैयतवाड़ी व्यवस्था
- अंग्रेजी प्रशासन द्वारा 1820 में दक्षिणी भारत के दक्कन वाले क्षेत्र में रैयतवाड़ी कर व्यवस्था को लागू किया गया
- इस कर व्यवस्था में किसानों पर बहुत अधिक मात्रा में कर लगाए गए जिनको चुका पाना किसानों के लिए बहुत मुश्किल था
- कई बार कर चुकाने के लिए किसानों द्वारा साहूकारों से ब्याज पर उधार लिया जाता था जिस वजह से वह कर्ज़ और कर तले दबे जा रहे थे
- इसी दौर में आगे जाकर क्षेत्र में बहुत बड़ा अकाल पड़ा जिस वजह से कृषि उत्पादन में कमी आई पर अंग्रेजी शासन द्वारा कर में कोई कमी नहीं की गई
- इस वजह से किसानों की समस्या और ज्यादा बढ़ गई
कपास की खेती
- 1861 में अमेरिका में गृह युद्ध की शुरुआत हुई जिस वजह से इंग्लैंड और अमेरिका के बीच होने वाला कपास का व्यापार लगभग बंद हो गया
- इस दौर में भारत के दक्कन क्षेत्र में कपास के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया गया
- किसानों ने साहूकारों से कर्ज लिया और मन लगाकर कपास की खेती की
- इस दौर में किसानों की स्थिति में कुछ सुधार आया परंतु अमेरिका में गृह युद्ध की समाप्ति के साथ ही किसानों की किसानो की स्थिति पहले से भी बुरी हो गई
- अब उनके सर पर वह कर्ज था जो उन्होंने कपास की खेती के लिया था परंतु कपास की मांग लगभग ना के बराबर हो चुकी थी
- इन्हीं सब समस्याओं के कारण दक्कन दंगे की शुरुआत हुई
दक्कन दंगा
- 12 मई 1875 को किसानों ने विद्रोह की शुरुआत की यह विद्रोह साहूकारों और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध
- इसकी शुरुआत पुणे में स्थित एक जगह सुपा से हुई
- इस विद्रोह में बहुत सारे साहूकारों को मारा गया उनके खेतों को जला दिया गया और माल गोदामों को लूट लिया गया
- यह उस दौर के के सबसे बड़े दंगों में से एक रहा
- कई साहूकारों की जान इस दंगे के दौरान चली गई और बड़ी मात्रा में संपत्ति का नुकसान हुआ
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