खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें (CH-7) Notes in Hindi || Class 12 Physical Education Chapter 7 in Hindi ||

पाठ – 7

खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें

In this post, we have given the detailed notes of class 12 Physical Education chapter 7 खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें (Physiology and Injuries in Sports) in Hindi. These notes are useful for the students who are going to appear in class 12 board exams.

इस पोस्ट में क्लास 12 के शारीरिक शिक्षा के पाठ 7 खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें (Physiology and Injuries in Sports) के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 12 में है एवं शारीरिक शिक्षा विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectPhysical Education
Chapter no.Chapter 7
Chapter Nameखेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें (Physiology and Injuries in Sports)
CategoryClass 12 Physical Education Notes in Hindi
MediumHindi
Class 12 Physical Education Chapter 7 खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें (Physiology and Injuries in Sports) in Hindi
Table of Content
3. खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें
3.5. खेल संबंधी चोटों का प्रबंधन

खेल में शरीर क्रिया विज्ञान और चोटें

  • शारीरिक पुष्टि के घटकों को निर्धारित करने वाले शरीर क्रियात्मक कारक

शारीरिक पुष्टि के घटक :-

1) शक्ति (Strength)
2) गति (Speed)
3) सहन – क्षमता (Endurance)
4) लचक (Flexibility)

शक्ति को निर्धारित करने वाले शरीर – क्रियात्मक कारक :-

1) मांसपेशियों का आकार :-

  • जिन व्यक्तियों की मांसपेशियों का आकार ( लंबाई तथा चौड़ाई ) बड़ा होता है , वह ज्यादा शक्ति उत्पन्न कर सकते हैं। अतः बड़ी मांसपेशियों वाले व्यक्ति अधिक शक्तिशाली होते हैं।
  • इसी कारण पुरुष महिलाओं की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते हैं क्योंकि उनकी मांसपेशियाँ महिलाओं की अपेक्षा अधिक बड़ी होती हैं।

2) मांसपेशियों की संरचना :-

  • हमारी सभी मांसपेशियाँ श्वेत तथा लाल फाईबर की बनी होती हैं । जिन मांसपेशियों में श्वेत फाईबर की प्रतिशतता अधिक होती हैं , वह लाल फाईबर वाली मांसपेशियों की अपेक्षा तेजी से सिकुड़ सकती हैं इसलिए वह अधिक शक्ति उत्पन्न कर पाती है।
  • जिन मासपेशियों में लाल फाइबर की प्रतिशतता अधिक होती है वह अधिक समय तक कार्य करने में सक्क्षम होती है अर्थात् उनकी सहनक्षमता अधिक होती है।

3) गामक इकाईयों की संख्या :-

  • प्रत्येक मांसपेशी बहुत – सी गामक इकाईयों से मिलकर बनी होती हैं । मांसपेशियों की शक्ति इन्हीं गामक इकाईयों की संख्या पर निर्भर करती है।
  • जिन मांसपेशियों में यह गामक इकाईयाँ अधिक होती हैं वह तीव्र तंत्रिका आवेग के कारण अधिक मांसपेशीय बल अर्थात् शक्ति उत्पन्न कर पाती हैं।

गति को निर्धारित करने वाले शरीर – क्रियात्मक कारक

 1) स्नायु संस्थान की गतिशीलता

  • जब कोई व्यक्ति बहुत तेजी से दौड़ता हैं तो उसकी मांसपेशियाँ भी तेज गति से संकुचित तथा शिथिल ( Contarction and Expansion ) होती हैं। मांसपेशियों के इसी संकुचन तथा शिथिलन को स्नायु संस्थान की गतिशीलता कहा जाता है।
  • स्नायु संस्थान की यह तीव्र उद्दीपन तथा प्रावरोधन केवल कुछ ही समय ( सेकंडों ) के लिए होता है और उसके बाद गति में कमी आने लगती है।

2) विस्फोटक शक्ति :-

  • किसी भी तीव्र शारीरिक गतिविधि के लिए व्यक्ति में शक्ति विशेषकर विस्फोटक शक्ति का होना अनिवार्य है अन्यथा उसकी शारीरिक गतिविधियों में अपेक्षित गति नहीं आती।
  • उदाहरण के लिए , मुक्केबाजी के दौरान यदि किसी मुक्केबाज में विस्फोटक शक्ति की कमी हो तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी पर अपेक्षाकृत तेजी से प्रहार नहीं कर पाएगा।

3) लचक :-

  • लचक के द्वारा व्यक्ति की गति की सीमा में वृद्धि होती है। लचकदार शरीर वाले व्यक्ति जब कोई गति संबंधी कार्य करते हैं , तो उनकी मांसपेशियों में तनाव कम होता है जिसके फलस्वरूप उनकी ऊर्जा की भी बचत होती है।

सहन – शक्ति या सहन – क्षमता निर्धारित करने वाले शरीर – क्रियात्मक कारक

1) लैक्टिक अम्ल की सहनशीलता :-

  • तीव्र शारीरिक गतिविधियों के दौरान शरीर में लैक्टिक अम्ल का निर्माण होता है।
  • यदि व्यक्ति में लैक्टिक अम्ल को सहन करने की क्षमता न हो तो वह शारीरिक गतिविधियों की निरंतर तीव्रता को अधिक समय तक जारी नहीं रख पाएगा। इस कारण उसमें सहन शक्ति का विकास नहीं हो पाएगा।

2) मितव्यय गतिविधि तकनीक :-

  • मितव्यय ढंग से की गई शारीरिक गतिविधियों के कारण ऊर्जा की कम खपत होती है । इसी कारण किसी भी गतिविधि को लम्बे समय तक जारी रखा जा सकता है। इससे व्यक्ति की सहन क्षमता में भी वृद्धि होती है।

3) मांसपेशीय संरचना :-

  • जिन व्यक्तियों की मांसपेशियों में लाल फाईबर की प्रतिशतता अधिक होती हैं , उनमें अधिक सहन – शक्ति वाले क्रियाकलापों की क्षमता अधिक पाई जाती है , जैसे कि- मैराथन धावकों की टाँगों में 90 % से भी अधिक लाल फाईबर पाई जाती है।

लचक को निर्धारित करने वाले शरीर – क्रियात्मक कारक

1) मांसपेशीय खिंचाव :-

  • नियमित रूप से शारीरिक गतिविधि न करने के कारण मांसपेशियाँ छोटी होती जाती हैं , जिसके कारण जोड़ों का विस्तार ( Range of movement ) भी सीमित होता जाता है। इससे व्यक्ति की लचक में कमी आती है।

2) वातावरण :-

  • अधिक तापमान / गर्म वातावरण में रहने से व्यक्ति की लचक में वृद्धि होती है जबकि कम तापमान / ठण्डे वातावरण में रहने से व्यक्ति की लचक में कमी आती है। इसलिए खेलों या व्यायाम से पहले शरीर को गर्माया जाता है।

3) चोट :-

  • ऊतकों अथवा मांसपेशीय चोटों के कारण भी लचक मे कमी आती है। हालाँकि चोट ठीक होने के बाद विभिन्न व्यायामों द्वारा पहले जैसी लचक पुनः प्राप्त की जा सकती है।

खेल संबंधी चोटें – वर्गीकरण , कारण और बचाव

  • खेल चोटों का वर्गीकरण :-

1) बाहरी चोटें :-

  • ये चोटे बाहरी कारक , जैसे- अनुपयुक्त खेल सामग्री / उपकरण , अव्यवस्थित खेल – क्षेत्र / सतह / कोर्ट आदि , सुरक्षा उपकरणों का उपयोग न करने तथा खिलाड़ियों द्वारा खेली जाने वाली गलत खेल तकनीकों के कारण लग सकती है। बाहरी चोटें शरीर के बाहरी हिस्सों पर लगती है जिन्हें देखा जा सकता है।

2) अंदरूनी चोटें :-

  • खेलों के प्रशिक्षण अथवा प्रतियोगिता के दौरान शारीरिक अंगों के अत्यधिक अथवा अनुपयुक्त से प्रयोग करने के कारण अंदरूनी चोटें लग सकती है। अंदरूनी चोटों के कारण होने वाले हल्के दर्द को यदि गंभीरता से नहीं लिया जाए और गतिविधि को चालू रखा जाए तो उसका परिणाम खतरनाक भी हो सकता है। आगे चलकर वह उस अंग को काफी क्षति भी पहुँचा सकती है। अंदरूनी चोटों को गुमचोट भी कहा जाता है क्योंकि अंदरूनी चोटों को देखा नहीं जा सकता हैं।

खेल चोटों के कारण

1) अपर्याप्त अनुकूलन :-

  • यदि अभ्यास सत्र के दौरान पर्याप्त अनुकूलन नहीं करता तो उसका शरीर पूरी तरह उस खेल के लिए अभ्यस्त नहीं होता , जिसके कारण खेल के दौरान चोट लगने की संभावना काफी बढ़ जाती है।

2) पुष्टि की कमी :-

  • यदि खिलाड़ी शारीरिक , शारीरिक क्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से पुष्ट ( fit ) नहीं है तो उसे खेलों अथवा प्रशिक्षण के दौरान कभी भी चोटें लगने की संभावना हर समय बनी रहती है । किसी ने सही कहा है कि- An unfit individual is more prone to injuries in the field of sports .

3) पोषक तत्वों की कमी :-

  • भोजन में पोषक तत्वों की कमी के कारण भी खिलाड़ियों को चोट लग सकती है । जैसे कि- यदि खिलाड़ियाँ भोजन में कम कैल्शियम ( calcium ) तथा फॉसफोरस ( phosphorus ) युक्त आहार लेता है तो शरीर में इनकी कमी के कारण खेल या प्रशिक्षण के दौरान गिरने या टकराने से अस्थि भंग ( fracture ) होने की संभावना बनी रहती है।

4) चोट की पुनरावृत्ति :-

  • यदि कोई खिलाड़ी किसी चोट से बिना पूरी तरह उबरे दोबारा से खेलों में भाग लेना शुरू कर दे तो ऐसे में उसी चोट की पुनरावृत्ति की संभावना बढ़ जाती है।

5) अनुचित खेल उपकरण :-

  • कई बार अनुचित खेल उपकरणों के कारण चोट लग सकती है जैसे कि यदि कोई धावक अपने पैरो के नाप से थोड़े बड़े जूतों के साथ दौड़ लगाता है तो ऐसे में उसे चोट लगने की संभावना बन जाती है।

खेल चोटों के बचाव के कुछ सुझाव

1) सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग :-

  • खेल के दौरान चोटों से बचने के लिए जरूरी है कि खिलाड़ियों को सुरक्षात्मक उपकरण उपलब्ध करवाए जाएं। इस प्रकार के उपकरण खिलाड़ियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिए।

2) संतुलित आहार :-

  • खिलाड़ियों को संतुलित आहार लेना चाहिए । यदि खिलाड़ी उचित आहार नहीं लेते तो उनके शरीर में पोषण तत्वों की कमी हो जाती है। पोषण तत्वों की कमी से मांसपेशियों की कार्यकुशलता में कमी आती है तथा मांसपेशियों में खिंचाव की संभावना बढ़ जाती है।

3) निष्पक्ष खेल संचालन :-

  • यदि खेल प्रतियोगिताओं में खेल का संचालन निष्पक्ष तरीके से किया जाता है तो खिलाड़ियों का मनोबल बना रहता है। वे अनुशासन में खेलते हैं और उनको चोट लगने का खतरा भी कम रहता है।

4) उचित तकनीक का प्रयोग :-

  • यदि खिलाड़ी खेलों में अच्छी तकनीक के द्वारा प्रशिक्षित होते हैं तो उनको खेल चोटों का विशेषकर अस्थिभंग का खतरा कम हो जाता है।

5) अतिप्रशिक्षण न करना :-

  • यदि लम्बी अवधि तक प्रशिक्षण न किया हो तो जटिल शारीरिक क्रियाएं लाभ की अपेक्षा हानिकारक होती है। इसलिए प्रशिक्षण ध्यानपूर्वक करना चाहिए।

खेल संबंधी चोटों का प्रबंधन

I. मुलायम तथा कोमल ऊतकों की चोट :-

1) रगड़ या छिलना :-

  • रगड़ या छिलना त्वचा की चोट है। रगड़ या छिलना प्रायः किसी उपकरण या सतह के साथ रगड़ने के परिणामस्वरूप हो जाता है।
  • कभी – कभी नीचे गिरने से भी रगड़ या छिलना हो सकता है। रगड़ या छिलने का सबसे अधिक खतरा विशेष कर उस जगह पर होता है जहाँ अस्थि त्वचा के बहुत पास हो।
  • आमतौर पर रगड़ या छिलना त्वचा के ऊपरी भाग पर ही होता है।

रगड़ या छिलने का प्रबंधन :-

  • सबसे पहले प्रभावित भाग को साफ पानी से साफ कर लें ।
  • फिर किसी निसक्रमित कपड़े से प्रभावित भाग पर लगे धूल के कणों को साफ कर प्रभावित स्थान को सुखा देना चाहिए ।
  • इसके बाद प्रभावित भाग पर ऐन्टी – सेप्टिक क्रीम ( ointment ) लगाएँ ।
  • यदि चोट ज्यादा गंभीर हो तो तुरंत डॉक्टर द्वारा उचित ड्रैसिंग कराएँ तथा संक्रमण से बचाव के लिए टेटनस का टीका लगवाएं।

रगड़ के बचाव के लिए टिप्स :-

  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए ।
  • खेलों में भाग लेने से पूर्व उचित तकनीक सीख लेनी चाहिए ।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

2) कन्ट्यूशन :-

  • कन्ट्यूशन मांसपेशी की चोट होती है । इस प्रकार की चोट किसी खेल उपकरण या किसी अन्य वस्तु से प्रत्यक्ष रूप से टकराने के कारण लग सकती है।
  • मुक्केबाजी , कबड्डी , कुश्ती आदि में कन्ट्यूशन होना सामान्य बात है। कन्ट्यूशन में मांसपेशियों में रक्त कोशिकाएँ ( blood vessels ) टूट जाती हैं और कभी – कभी मांसपेशियों से रक्त भी बहने लगाता है।
  • कन्ट्यूशन की स्थिति में कई बार मांसपेशियाँ भी अपना काम करना स्थाई या अस्थाई रूप से निष्क्रिय हो जाती हैं।

कन्ट्यूशन का प्रबंधन :-

  • कन्ट्यूशन के स्थान पर तुरंत पानी या बर्फ द्वारा दबाव ( cold compression ) का प्रयोग करना चाहिए । हालांकि यह प्रयोग बहुत अधिक देर तक लगातार नहीं करना चाहिए ।
  • सूजन की स्थिति में डॉक्टर की सलाह अनुसार दवाई देनी चाहिए ।
  • कन्ट्यूशन के पुनर्वास के लिए लचक संबंधी व्यायाम करने चाहिए।

कन्ट्यूशन से बचाव के लिए टिप्स :-

  • अभ्यास , प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को उचित रूप से गर्मा लेना चाहिए ।
  • तैयारी काल के दौरान अनुकूलन करना चाहिए ।
  • अभ्यास तथा प्रतियोगिता के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए ।
  • खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिए ।

3) खरोंच :-

  • इस प्रकार की चोटें किसी नुकीली अथवा तेज धार की वस्तु से त्वचा के अनियमित रूप से कटने के कारण लगती है।
  • इस प्रकार की चोटों में अधिक रक्तस्राव नहीं होता है और इन चोटों के पूरी तरह ठीक होने के बाद भी इनके खुरदरे निशान शरीर पर रह जाते है।

खरोंच के कारण लगने वाली चोट का प्रबंधन :-

  • सबसे पहले रक्त के बहाव को रोकने का प्रयास करना चाहिए ।
  • रक्तस्राव के रूकने के बाद खरोंच को डिटोल इत्यादि से अच्छी तरह से साफ कर एंटीसेप्टिक लगा देना चाहिए ।
  • संक्रमण से बचने के लिए खरोंच को निसंक्रमित पट्टी से लपेट देना चाहिए ।
  • यदि दर्द महसूस हो तो दर्द निवारक ली जानी चाहिए ।
  • यदि खरोंचें गंभीर हो तो तुरंत डॉक्टर के पास जाना चाहिए ।

खरोंच से बचाव के लिए टिप्स :-

  • खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को अच्छी तरह से गर्मा लेना चाहिए ।
  • अभ्यास के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए ।
  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए ।

4) मोच :-

  • यह लिगामेंट ( ligament ) की चोट होती है। मोच अधिक खिंचाव या लिगामेंट के फटने के फलस्वरूप हो जाती है।
  • सामान्यतया , मोच ( sprain ) कोहनी के जोड़ ( wrist joint ) या टखने के जोड़ ( ankle joint ) पर होती है। कभी – कभी मोच के साथ – साथ अस्थिभंग ( fracture ) भी हो जाता है।
  • मोच की स्थिति में सूजन के साथ – साथ दर्द भी होता है । कई बार मोच के कारण लिगामेंट ढीला भी हो जाता है।
  • मोच के लक्षण इस बात पर निर्भर करते हैं कि मोच किस प्रकार की है अर्थात् हल्की ( mild ) है या गहरी ( severe )।

मोच का प्रबंधन :-

  • मोच के प्रबंधन या उपचार के लिए प्राइस ( PRICE ) तथा माइस ( MICE ) प्रक्रिया निम्न प्रकार से अपनाई जाती है।

PRICE:-

P – Protection ( सुरक्षा )
R – Rest ( आराम )
I – Ice ( बर्फ )
C – Compression ( दबाव )
E – Elevation ( ऊपर उठना )

  • सुरक्षा :- चोटग्रस्त हिस्से को तुरंत सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए ताकि दोबारा उसी स्थान पर चोट न लगे।
  • आराम :- चोटग्रस्त हिस्से को बिल्कुल हिलाना नहीं चाहिए तथा उसे पूरा आराम देना चाहिए। पर्याप्त आराम चोट को जल्दी ठीक करने में सहायक होता है।
  • बर्फ :- चोटग्रस्त हिस्से पर बर्फ का प्रयोग करना चाहिए ताकि रक्तस्राव और सूजन को कम किया जा सके। इससे दर्द में भी आराम मिलता है। बर्फ का प्रयोग एक बार में 15 से 20 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए।
  • दबाव :- चोटग्रस्त हिस्से के आसपास एक मजबूत पैड लगाकर उस पर स्ट्रैप इस प्रकार लगाना चाहिए कि चोटिल क्षेत्र में दबाव अधिक न हो की रक्तप्रवाह बाधित हो जाए।
  • ऊपर उठाना :- चोटग्रस्त हिस्से को तकिए के ऊपर तथा हृदय के स्तर से थोड़ा ऊपर की ओर रखना चाहिए ताकि सूजन कम हो सकें।

MICE :-

M – Mobilisation ( गतिशीलता )
I – Ice ( बर्फ )
C – Compression ( दबाव )
E – Elevation ( ऊपर उठना )

  • गतिशीलता :- चोटग्रस्त अंग को गति की पूरे विस्तार तक ले जाने से शुरू करना चाहिए। ऐसी गतियाँ नहीं करनी चाहिए जिनसे दर्द का अनुभव होता है। धीरे – धीरे गति के विस्तार को बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।
  • बर्फ :- बर्फ के साथ उपचार एक हफ्ते के लगभग करना चाहिए । इसके बाद हीट ट्रीटमेंट जैसे हॉट पैड्स का प्रयोग करना चाहिए । इससे प्रभावित एरिया को रक्त प्रवाह को उत्तेजित करने में सहायता मिलती है ।
  • दबाव :- इसे कुछ दिनों तक जारी रखने के बाद इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती ।
  • ऊपर उठाना :- जब तक सूजन व लाली समाप्त न हो जाए तब तक प्रभावित अंग को ऊपर उठाए रखना चाहिए ।

मोच से बचाव के लिए टिप्स :-

  • अभ्यास तथा प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को अच्छी तरह से गर्मा लेना चाहिए।
  • अभ्यास के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए ।
  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए ।

5) खिंचाव :-

  • खिंचाव भी मांसपेशी की चोट ही होती है। खिंचाव साधारण या असाधारण भी हो सकता है।
  • कई बार खिंचाव के कारण पूरी मांसपेशी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं , जिसके कारण उस हिस्से को हिलाना भी असम्भव हो जाता है।
  • ऐसी स्थिति में खिंचाव वाली जगह पर असहनीय दर्द भी हो सकता है। अभ्यास या प्रतियोगिता के दौरान अनेक स्थितियाँ हो सकती हैं , जिनके कारण खिंचाव हो सकता है।

खिंचाव का प्रबंधन :-

  • खिंचाव के उपचार के लिए अधिकतर ‘ प्राइस ‘ प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस प्रक्रिया को चोट लगने के बाद तथा चोट की गंभीरता के अनुसार अगले एक – दो दिन तक निम्न प्रकार से अपनानी चाहिए।

PRICE :-

P – Protection ( सुरक्षा )
R – Rest ( आराम )
I – Ice ( बर्फ )
C – Compression ( दबाव )
E – Elevation ( ऊपर उठना )

  • सुरक्षा :- चोटग्रस्त हिस्से को तुरंत सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए ताकि दोबारा उसी स्थान पर चोट न लगे।
  • आराम :- चोटग्रस्त हिस्से को बिल्कुल हिलाना नहीं चाहिए तथा उसे पूरा आराम देना चाहिए। पर्याप्त आराम चोट को जल्दी ठीक करने में सहायक होता है।
  • बर्फ :- चोटग्रस्त हिस्से पर बर्फ का प्रयोग करना चाहिए ताकि रक्तस्राव और सूजन को कम किया जा सके। इससे दर्द में भी आराम मिलता है। बर्फ का प्रयोग एक बार में 15 से 20 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए।
  • दबाव :- चोटग्रस्त हिस्से के आसपास एक मजबूत पैड लगाकर उस पर स्ट्रैप इस प्रकार लगाना चाहिए कि चोटिल क्षेत्र में दबाव अधिक न हो की रक्तप्रवाह बाधित हो जाए।
  • ऊपर उठाना :- चोटग्रस्त हिस्से को तकिए के ऊपर तथा हृदय के स्तर से थोड़ा ऊपर की ओर रखना चाहिए ताकि सूजन कम हो सकें।

खिंचाव से बचाव के लिए टिप्स :-

  • तैयारी काल के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए ।
  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेल का मैदान / कोर्ट्स समतल व साफ होने चाहिए ।
  • खेल के बारे में वैज्ञानिक जानकारी अवश्य होनी चाहिए ।

6) चीरा :-

  • चीरा तेज किनारों वाली वस्तुओं आदि से लगने वाली चोट हैं। चीरे के कारण धमनियाँ या शिराएँ भी कट सकती है जिसके कारण तेज रक्तस्त्राव हो सकता है।

चीरे का प्रबंधन :-

  • यदि घाव अधिक गहरा नहीं है तो थोड़े से रक्त को बाहर आने देना चाहिए ताकि कीटाणु भी बाहर आ जाए ।
  • फिर घावों को टिंकचर आयोडीन या स्प्रिट से साफ कर देना चाहिए । उसके उपरांत घाव पर रूई का टुकड़ा रखकर पट्टी बाँध देनी चाहिए ।
  • अधिक रक्तस्राव को रोकने के लिए पट्टी सख्त करके बाँधनी चाहिए ।
  • यदि घाव काफी गहरा हो तो तुरंत डॉक्टर के पास जाना चाहिए।

चीरा से बचाव के लिए टिप्स :-

  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए ।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान खिलाड़ियों को हमेशा सतर्क व सावधान रहना चाहिए ।
  • खेलों को निर्धारित नियमों के अनुरूप ही खेलना चाहिए ।

II. अस्थि व जोड़ों की चोट का प्रबंधन :-

1) जोड़ों का विस्थापन :-

  • जोड़ों का विस्थापन ( dislocation ) खेलों के दौरान लगने वाली एक मुख्य चोट है । वास्तव में , यह जुड़ी हुई अस्थियों के जोड़ की सतहों का विस्थापन होता है ।
  • विस्थापन वह चोट होती है जो अस्थियों को उनके सॉकेट्स से बाहर आने को मजबूर करती है । यह अस्थाई रूप से जोड़ को विकृत कर देता है ।
  • जोड़ों के विस्थापन निम्न प्रकार के होते हैं :-

( a ) निचले जबड़े का विस्थापन :-

  • सामान्यतया , यह तब होता है , जब ठोड़ी किसी वस्तु से जोर से टकरा जाए। कई बार अधिक मुँह खोलने से भी निचले जबड़े का विस्थापन हो सकता है।

( b ) कंधे के जोड़ का विस्थापन :-

  • अचानक झटके या कठोर सतह पर गिरने से भी कंधे के जोड़ का विस्थापन हो सकता है। इस चोट में ह्यूमरन ( Humerous ) का सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।

( c ) कूल्हे के जोड़ का विस्थापन :-

  • अचानक ही अधिक शक्ति लगाने से कूल्हे के जोड़ का विस्थापन हो सकता है। इस चोट में फीमर ( Femur ) का ऊपरी सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।

जोड़ों के विस्थापन का प्रबंधन :-

  • तुरंत चिकित्सा सहायता के लिए कॉल करें ।
  • अपने आप जोड़ों / जोड़ को हिलाने या फिट करने का प्रयास न करें ।
  • सूजन पर नियंत्रण रखने हेतु जोड़ के विस्थापित भाग पर बर्फ लगाएँ।
  • डॉक्टरी मदद आने तक प्रभावित जोड़ को फिक्स अवस्था में रखने के लिए स्लिंग या स्पिलिंट ( splint ) का प्रयोग करें।

2)अस्थि भंग :-

( a ) साधारण अस्थि भंग ( Simple Fracture ) :-

  • जब किसी भी प्रकार के घाव के बिना अस्थि भंग हो जाती है , उसे साधारण अस्थि भंग कहा जाता है। इस प्रकार का अस्थि भंग आमतौर पर किसी से टकराने या फिसलने के कारण हो सकता है। आमतौर पर इस प्रकार के अस्थि भंग कुछ हफ्तों में अपने आप ठीक हो जाते हैं।

( b ) विवृत्त अस्थि भंग :-

  • विवृत्त अस्थि भंग वह अस्थि भंग होता है , जिसमें अस्थि के टूटने के साथ – साथ त्वचा और मांसपेशियों को भी नुकसान होता है। सामान्यतया , इस प्रकार के अस्थि भंग में टूटी हुई अस्थि त्वचा को फाड़कर बाहर आ जाती है।

( c ) जटिल अस्थि भंग :-

  • जटिल अस्थि अंग में टूटी हुई अस्थि आंतरिक अंगों को भी हानि पहुँचा देती है । ये अंग ऊतक , तन्तु या तन्त्रिका या फिर धमनी भी हो सकती है । इस प्रकार के अस्थि भंग प्रायः बहुत जटिल व खतरनाक होते हैं। इस प्रकार के अस्थि भंग की संभावना ऊँची कूद तथा बाँस कूद वाले खिलाड़ियों में सबसे अधिक होती है।

( d ) कच्ची अस्थि भंग ;-

  • इस प्रकार के अस्थि भंग सामान्यतया बच्चों में देखे जाते हैं , क्योंकि उनकी अस्थियाँ बहुत ही मुलायम व कोमल होती हैं। जब भी इन अस्थियों पर कोई दबाव पड़ता हैं , तो ये अस्थियाँ मुड़ जाती हैं।

( e ) बहुखंड अस्थि भंग :-

  • जब एक अस्थि दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाती है , तो इसे बहुखंड अस्थि भंग कहा जाता है। इस प्रकार के अस्थि भंग मुख्यतः साइकिल दौड़ या मोटर साइकिल दौड़ के दौरान चोट लगने के कारण हो सकते है।

( f ) पच्चड़ी अस्थि भंग :-

  • जब किसी टूटी हुई अस्थि का एक सिरा , दूसरी अस्थि में घुस जाता है , तो इसे पच्चड़ी अस्थि भंग कहा जाता है।

विभिन्न प्रकार के अस्थि – भंग से बचाव के लिए टिप्स :-

  • इसके लिए शरीर के सभी अंगों तैयारी काल के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए ।
  • थकावट की दशा में खिलाड़ियों को खेल जारी नहीं रखना चाहिए ।
  • खेल संचालन निष्पक्ष ढंग से होना आवश्यक है ।
  • अभ्यास तथा प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों को सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
  • खेलों में भाग लेने से पूर्व उस खेल का वैज्ञानिक ज्ञान अवश्य होना चाहिए।

प्राथमिक चिकित्सा

प्राथमिक चिकित्सा का अर्थ :-

  • किसी दुर्घटना , आपदा या अचानक बीमारी की स्थिति में घायल या मरीज को डॉक्टर के पास ले जाने से पहले या डॉक्टर के पहुँचने तक मौके पर ही उसकी प्रारम्भिक देखभाल / उपचार को प्राथमिक सहायता चिकित्सा कहते हैं।
  • प्राथमिक चिकित्सा देने वाला व्यक्ति घर का सदस्य या अन्य कोई भी व्यक्ति हो सकता है।
  • प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसीलिए भी आवश्यक है क्योंकि प्रशिक्षण से ही रोग / खतरे की पहचान ( Check for Danger ) की जा सकती है तथा उचित सहायता प्रणाली अपनायी जा सकती है।

प्राथमिक चिकित्सा के लक्ष्य एवं उद्देश्य :-

1) जीवन को सुरक्षित करना :-

  • प्राथमिक चिकित्सा का सर्वप्रथम उद्देश्य प्रभावित व्यक्ति के जीवन की रक्षा करना होता है । इसके लिए सबसे पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि घायल व्यक्ति की सांस सामान्य रूप से चल रही है के नहीं।

2) शारीरिक क्षति को बढ़ने से रोकना :-

  • प्राथमिक चिकित्सक को चाहिए कि वह प्रभावित व्यक्ति को दुर्घटना स्थल से सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करे तथा शारीरिक क्षति को प्राथमिक चिकित्सा विधि द्वारा और अधिक गंभीर होने से रोकने का प्रयास करें।

3) रिकवरी की गति को बढ़ाना :-

  • समय रहते सामान्य चिकित्सा सुविधा प्रदान करने से रिकवरी की गति को बढ़ाया जा सकता है। इसमें रिकवरी प्रक्रिया की शुरूआत भी सम्मिलित है। जैसे कि- जले हुए स्थान पर बर्फ लगाने से जलन कम हो जाती है तथा रिकवरी प्रक्रिया भी तीव्र हो जाती है।

4) चिकित्सा सहायता जल्द उपलब्ध कराना :-

  • प्रारंभिक चिकित्सा का सबसे प्रमुख उद्देश्य शुरूआती चिकित्सा सहायता को जल्द – से – जल्द प्रदान करना है । वास्तव में कई बार कुछ ऐसी स्थितियाँ हो जाती है , जहाँ घायल व पीड़ित को प्राथमिक चिकित्सा से ज्यादा चिकित्सा सहायता की जरूरत होती हैं ।

5) दर्द व पीड़ा को कम करना :-

  • घायल या पीड़ित व्यक्ति को दर्द व पीड़ा को कम करना , प्राथमिक सहायता का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है । किसी भी प्रकार की दुर्घटना में दर्द का होना स्वाभाविक है । दुर्घटना में यदि अस्थि टूट जाती है या जोड़ का विस्थापन हो जाता है तो दर्द असहनीय हो जाता है , जिसे कम करना प्राथमिक सहायता मुख्य उद्देश्य होता है।

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