खेल में प्रशिक्षण (CH-10) Notes in Hindi || Class 12 Physical Education Chapter 10 in Hindi ||

पाठ – 10

खेल में प्रशिक्षण

In this post, we have given the detailed notes of class 12 Physical Education chapter 10 खेल में प्रशिक्षण (Training in Sport) in Hindi. These notes are useful for the students who are going to appear in class 12 board exams.

इस पोस्ट में क्लास 12 के शारीरिक शिक्षा के पाठ 10 खेल में प्रशिक्षण (Training in Sport) के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 12 में है एवं शारीरिक शिक्षा विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectPhysical Education
Chapter no.Chapter 10
Chapter Nameखेल में प्रशिक्षण (Training in Sport)
CategoryClass 12 Physical Education Notes in Hindi
MediumHindi
Class 12 Physical Education Chapter 10 खेल में प्रशिक्षण (Training in Sport) in Hindi
Table of Content
2. खेल में प्रशिक्षण
2.3. सहन – क्षमता

 प्रशिक्षण का अर्थ

  • प्रशिक्षण किसी कार्य की तैयारी की दीर्घकालीन प्रक्रिया है।
  • किसी खेल अथवा प्रतियोगिता में अच्छे परिणाम प्राप्त करने के उद्देश्य से की गई तैयारी को खेल प्रशिक्षण कहा जाता है।
  • खेल प्रशिक्षण एक दीर्घकालिक क्रिया है, जिसके फलस्वरूप शरीर धीरे-धीरे अधिक भार सहने का आदी हो जाता है तथा अधिक दबाव वाली परिस्थितियों का सामना करने हेतु तैयार होता है।

शक्ति

  • किसी प्रतिरोध का सामना करने की मांसपेशियों की योग्यता को शक्ति कहते हैं।
  • दूसरे शब्दों में कहें तो – शक्ति शरीर की मांसपेशियों द्वारा उत्पन्न किया गया वह बल होता है जिसके कारण व्यक्ति कार्य करने के योग्य हो जाता है।
  • बैरो के अनुसार “ संपूर्ण शरीर अथवा इस के किसी अंग द्वारा बल लगाने की क्षमता को शक्ति कहा जाता है। ”

शक्ति के प्रकार:-

1) गतिशील शक्ति

(क) अधिकतम शक्ति
(ख) विस्फोटक शक्ति
(ग) सहन क्षमता शक्ति

2) स्थिर शक्ति

1) गतिशील शक्ति (Dynamic Strength) :-

  • गतिशील शक्ति शरीर की विभिन्न गतियों के लिए उत्तरदायी होती है तथा इसके आइसोटोनिक शक्ति भी कहते हैं।
  • किसी शारीरिक क्रिया जैसे कि – पुल-अप्स और पुश-अप्स को करने में गतिशील शक्ति का प्रयोग होता है।
  • विभिन्न प्रकार के खेलों में खेलों की प्रकृति के अनुसार निम्न प्रकार की गतिशील शक्तियों की आवश्यकता होती है जैसे कि –

(क) अधिकतम शक्ति :-

  • ऐसी शक्ति जो अधिक प्रतिरोध के प्रतिक्रिया करने के लिए प्रयोग की जाती है अर्थात ऐसी शक्ति जो शरीर एक ही बार में जुटा लें, अधिकतम शक्ति कहलाती है।

(ख) विस्फोटक शक्ति :-

  • शारीरिक शक्ति तथा गति के योग के कारण तीव्र गति से शारीरिक क्रिया करने की मांसपेशियों की शक्ति को विस्फोटक शक्ति कहा जाता है।

(ग) सहन-क्षमता शक्ति :-

  • शारीरिक शक्ति तथा शहर क्षमता के योग के कारण उत्पन्न शक्ति, सहन क्षमता शक्ति कहलाती है।

2) स्थिर शक्ति (Static Strength) :-

  • कुछ समय के लिए बिना अधिक हिले डुले निरंतर रूप से लगाई गई अधिकतम मांसपेशी शक्ति, स्थिर शक्ति या आइसोमीट्रिक शक्ति कहलाती है।
  • इस प्रकार की शक्ति लगाते समय कार्य प्रत्यक्ष रूप से होता हुआ दिखाई नहीं पड़ता।
  • इस प्रकार की शक्ति का प्रयोग भारोत्तोलन जैसी प्रतियोगिताओं में किया जाता है।

शक्ति के विकास की विधियां :-

1) आइसोमेट्रिक व्यायाम :-

  • आइसोमेट्रिक एक्सरसाइज वे एक्सरसाइज हैं, जो दिखाई नहीं देती हैं। वास्तव में कोई प्रत्यक्ष गति नहीं है, इसलिए उन्हें देखा नहीं जा सकता है।
  • इन अभ्यासों में काम तो किया जाता है लेकिन सीधे तौर पर नहीं देखा जाता है।
  • इन अभ्यासों में, मांसपेशियों का एक समूह मांसपेशियों के दूसरे समूह के खिलाफ तनाव करता है। उदाहरण के लिए, एक मजबूत दीवार के खिलाफ धक्का देना।

2) आइसोटोनिक व्यायाम :-

  • आइसोटोनिक शब्द का शाब्दिक अर्थ है निरंतर तनाव यानी आइसो का अर्थ है निरंतर चींटी टॉनिक का अर्थ है तनाव।
  • इस अभ्यास में मांसपेशियों की लंबाई उनमें तनाव के साथ-साथ क्रिया के दौरान बदलती (छोटा या लंबी) होती है।
  • आइसोटोनिक व्यायाम सक्रिय व्यायाम का एक रूप है जिसमें मांसपेशियां सिकुड़ती हैं और गति का कारण बनती हैं।
  • इस तरह के व्यायाम से जोड़ों की गतिशीलता में काफी वृद्धि होती है और मांसपेशियों की ताकत और स्वर में सुधार करने में मदद मिलती है।

3) आइसोकाइनेटिक व्यायाम :-

  • ये अभ्यास विशेष रूप से डिज़ाइन की गई मशीनों पर किए जाते हैं। इन अभ्यासों को 1968 में पेरिन द्वारा विकसित किया गया था।
  • इन अभ्यासों में, मांसपेशियों का संकुचन केवल अपनी गति की सीमा के एक विशेष कोण पर अधिकतम बल लागू करता है, आइसोकिनेटिक व्यायाम में बल का संकुचन पूरे समय में होता है।
  • इन अभ्यासों में एक विशिष्ट प्रकार की मांसपेशियों में संकुचन शामिल होता है जो कि रोइंग और तैराकी जैसे खेलों और खेलों में शामिल नहीं होता है।

सहन – क्षमता

  • किसी शारीरिक क्रिया अथवा गतिविधि को लंबी अवधि तक जारी रखने की शारीरिक योग्यता, सहन-क्षमता कहलाती है।
  • थकान की स्थिति में आवश्यक गुण तथा गति के साथ क्रिया करने की क्षमता को सहन क्षमता कहा जाता है।
  • किसी खिलाड़ी की सहन क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके मांसपेशियां कितनी लंबी अवधि तक कार्य कर सकती हैं।

सहन – क्षमता के प्रकार :-

1) गतिविधि की प्रकृति के अनुसार सहन-क्षमता :-

  • गतिविधि की प्रकृति के अनुसार सहन क्षमता को निम्न रूप से विभाजित किया गया है :-

(क) मूलभूत सहन-क्षमता :-

  • किसी खिलाड़ी की वह सहन-क्षमता जो उसे लंबी अवधि तक के क्रियाकलापों को जारी रखने के योग्य बनाती है, उसकी मूलभूत सहन-क्षमता कहलाती है।

(ख) सामान्य सहन-क्षमता :-

  • धीमी तथा तीव्र गति वाले क्रियाकलापों के कारण हुई थकान को सहन करने की योग्यता को सामान्य सहन-क्षमता कहा जाता है।

(ग) विशिष्ट सहन-क्षमता :-

  • किसी विशिष्ट क्रियाकलाप या गतिविधि के कारण होने वाली थकान को सहने की योग्यता विशिष्ट सहन-क्षमता कहलाती है।

2) गतिविधि की अवधि के अनुसार सहन-क्षमता :-

  • गतिविधि की अवधि के अनुसार सहन क्षमता को निम्न रूप से विभाजित किया गया :-

(क) गति सहन क्षमता :-

  • 45 सेकंड तक चलने वाली तीव्र शारीरिक गतिविधियों के कारण हुई थकान को सहने की क्षमता गति सहन क्षमता कहलाती है।

(ख) अल्प अवधि सहन क्षमता :-

  • 45 सेकंड से 2 मिनट तक चलने वाली तीव्र शारीरिक गतिविधियों के कारण हुई थकान को सहने की क्षमता अल्प अवधि सहन – क्षमता कहलाती है।

(ग) मध्यम अवधि की सहन क्षमता :-

  • 2 मिनट से 11 मिनट तक चलने वाली शारीरिक गतिविधियों के कारण हुई थकान को सहने की क्षमता मध्यम अवधि सहन क्षमता कहलाती है।

(घ) दीर्घ अवधि सहन क्षमता :-

  • 11 मिनट से अधिक अवधि तक चलने वाली शारीरिक गतिविधियों के कारण हुई थकान को सहने की क्षमता दीर्घ अवधि सहन क्षमता कहलाती है।

सहन क्षमता विकसित करने की विधियाँ :-

1) निरंतर प्रशिक्षण विधि :-

  • सहन क्षमता विकसित करने के लिए निरंतर प्रशिक्षण विधि को सबसे उत्तम माना गया है।
  • निरंतर प्रशिक्षण विधि में व्यायाम बिना रुके लंबे समय तक किए जाते हैं , जैसे कि- क्रॉस कंट्री दौड़।
  • इस विधि के दौरान व्यायाम करने की अवधि 30 मिनट से अधिक होती है। हालाँकि यह अवधि खिलाड़ी की सहन क्षमता के अनुरूप बढ़ाई भी जा सकती है।
  • इस विधि में व्यायाम की सघनता कम होने के कारण हृदय दर 140 से 160 धड़कन प्रति मिनट के बीच होती है। निरंतर प्रशिक्षण विधि को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है :-

(क) धीमी निरंतर प्रशिक्षण विधि :-

  • इस विधि में खिलाड़ी बिना रुके अधिक लंबे समय तक व्यायाम करता है।

(ख) तीव्र निरंतर प्रशिक्षण विधि :-

  • तीव्र निरंतर विधि में व्यायाम को लंबे समय तक अपेक्षाकृत तेज गति से बिना रुके तथा अधिक सघनता से किया जाता है।

(ग) परिवर्तनीय गति प्रशिक्षण विधि :-

  • इस विधि में व्यायाम निरंतर परंतु परिवर्तित गति के साथ किया जाता है। यह विधि प्रशिक्षित खिलाड़ी के लिए उपयोगी रहती है। यह विधि ऐरोबिक तथा एनैरोबिक दोनों प्रकार की क्षमताओं का विकास करती है।

निरंतर प्रशिक्षण विधि के लाभ :-

(a) इस विधि के अनुसार प्रशिक्षण लेने से हृदय तथा फेफड़ों की कार्यक्षमता में कुशलता आती है।
(b) इस विधि के अनुसार प्रशिक्षण लेने से मांसपेशियों में लाल रक्त कण ( R.B.C. ) की मात्रा में वृद्धि होती है।
(c) इससे थकावट की दशा में भी कार्य करने की क्षमता में वृद्धि होती है। जिसके कारण व्यक्ति अधिक दृढ निश्चयी बनता है।
(d) यह विधि सहन क्षमता बढ़ाने का सबसे अच्छा विकल्प है।

2) अंतराल प्रशिक्षण विधि :-

  • यह प्रशिक्षण विधि प्रयास एवं पुनः शक्ति प्राप्ति ( recovery time ) , फिर प्रयास एवं पुनः शक्ति प्राप्ति ( effort and recovery ) के सिद्धांत पर आधारित हैं।
  • अंतराल प्रशिक्षण विधि में खिलाड़ी हर बार तीव्र गति से व्यायाम करता है फिर उसे पुनः शक्ति प्राप्ति का समय दिया जाता है और फिर से वह तीव्र गति से व्यायाम करता है।
  • दूसरे शब्दों में कहें तो इस विधि में हर बार व्यायाम तेज गति के साथ किया जाता है तथा अधूरा आराम दिया जाता है। इस विधि में व्यायाम की गति एवं अवधि इतनी होती है , कि हृदय की गति 180 धड़कन प्रति मिनट तक पहुँच जाए।
  • इसके पश्चात् अधूरा आराम दिया जाता है अर्थात् जब तक हृदय गति 120 से 130 धड़कन प्रति मिनट तक नहीं हो जाती , तथा फिर से तीव्रता के साथ व्यायाम प्रारंभ कर दिया जाता है, यह प्रशिक्षण विधि मध्यम दूरी की दौड़ों , फुटबॉल तथा हॉकी इत्यादि खेलों के लिए बहुत उपयोगी रहती है।

अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभ :-

(a) इस विधि के अनुरूप व्यायाम करने से खिलाड़ी कम समय में अधिक कार्य करने के योग्य बन जाता है।
(b) यह विधि श्वसन तंत्र तथा रक्त संचार के लिए लाभदायक है।
(c) इस विधि द्वारा खिलाड़ी कम समय में अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकता है।
(d) इस विधि के अनुसार व्यायाम करने से खिलाड़ी की सहन क्षमता में भी वृद्धि होती हैं।

3) फार्टलेक प्रशिक्षण विधि :-

  • फार्टलेक प्रशिक्षण विधि का प्रयोग सहन क्षमता विकसित करने के लिए किया जाता है । इस विधि को गोस्टा होमर ने 1937 ई ० में विकसित किया था ।
  • यह प्रशिक्षण विधि निरंतर तथा अंतराल प्रशिक्षण विधि का सम्मिश्रण है। इसमें खिलाड़ी अपने आसपास की परिस्थिति को ध्यान में रखकर दौड़ता है। जैसे- कच्ची – पक्की सड़कें , पथरीले रास्ते , कीचड़ व कँटीले रास्ते , पहाड़ , नदियों के किनारे आदि।
  • इसमें खिलाड़ी दौड़ के आधार को ध्यान में रखकर गति परिवर्तन करता है , अर्थात् गति से खेलता है , इसलिए प्रशिक्षण को गति खेल भी कहा जाता है।

फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ :-

(a) इस विधि के अनुसार व्यायाम के दौरान हृदय गति बढ़ने के कारण हृदयवाहिका सहन क्षमता में सुधार होता है।
(b) इस प्रकार के प्रशिक्षण कार्यक्रम में कई खिलाड़ी एक साथ भाग ले सकते हैं।
(c) इस प्रकार की प्रशिक्षण विधि बिना किसी उपकरण के आसानी से आयोजित किया जा सकता है।
(d) भिन्न – भिन्न प्रकार की भूमि पर दौड़ने के कारण खिलाड़ी के जोड़ अधिक शक्तिशाली बनते हैं।

गति

  • कम से कम समय में अधिक दूरी को तय करने की क्षमता को गति कहते हैं।
  • गति वह दर है जिस पर व्यक्ति अपने शरीर अथवा शरीर के अंगों को संचालित कर सकता है।
  • एक ही नमूने की गतिविधि को तीव्रता से बार-बार करने की व्यक्ति की योग्यता को गति कहते हैं।

गति के प्रकार :-

1) प्रतिक्रिया योग्यता :-

  • किसी कार्य अथवा संकेत के प्रति तुरन्त प्रभावी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की योग्यता को प्रतिक्रिया योग्यता कहते हैं।
  • चूँकि इस प्रकार की योग्यता खिलाड़ी की समन्वय प्रक्रियाओं पर निर्भर करती है , इसलिए इसे समन्वय योग्यता ( Coordination ability ) भी कहा जाता है।
  • विभिन्न प्रकार के खेलों में विभिन्न प्रकार के संकेतों ( दिखाई अथवा सुनाई देने वाले संकेत ) का प्रयोग होता है। इन संकेतों के प्रति प्रतिक्रिया के आधार पर प्रतिक्रिया योग्यता को सरल तथा जटिल प्रतिक्रिया योग्यता में वर्गीकृत किया गया है।

(क) सरल प्रतिक्रिया योग्यता :-

  • यह पहले से निर्धारित किसी संकेत के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया देने की योग्यता होती है। जैसे कि- निर्देश मिलते ही धावक द्वारा दौड़ शुरू करना।

(ख) जटिल प्रतिक्रिया योग्यता :-

  • यह खेलों के दौरान स्थिति के अनुरूप अप्रत्याशित संकेतों ( unexpected signs ) के प्रति तुरन्त सटीक प्रतिक्रिया देने की योग्यता होती है। जैसे कि- बल्लेबाज द्वारा फेंकी गई बॉल की प्रकृति के अनुरूप शॉट खेलना।

2) त्वरण योग्यता :-

  • यह विराम अथवा कम गति की अवस्था से अधिकतम गति प्राप्त करने की योग्यता होती है ।
  • खिलाड़ियों में इस प्रकार की योग्यता उनकी विस्फोटक शक्ति , तकनीक तथा लचीलेपन पर निर्भर करती है ।
  • यह योग्यता तेज गति की दौड़ों , तैराकी , हॉकी , फुटबॉल तथा जिम्नास्टिक जैसे खेलों के लिए अनिवार्य है ।

3) शारीरिक क्रियाओं की गति :-

  • इसका तात्पर्य किसी शारीरिक क्रिया को कम – से – कम समय में पूरा करने की योग्यता से है ।
  • मुक्केबाजी , कुश्ती , फेंकने , कूदने , जिम्नास्टिक , तैराकी में मुड़ने तथा स्प्रिंट दौड़ों के दौरान इस प्रकार की योग्यता की आवश्यकता पड़ती है ।

4) गति क्षमता योग्यता :-

  • यह लंबे समय तक अपनी अधिकतम गति बनाए रखने की योग्यता है ।
  • छोटे दूरी की तथा स्प्रिंट दौड़ों , साइक्लिंग , तैराकी तथा नौका चालन जैसी प्रतियोगिताओं के दौरान इस प्रकार की योग्यता की आवश्यकता होती ।

5) गति सहन क्षमता :-

  • यह खिलाड़ी के थकने के बावजूद तीव्र गति से गतिविधियाँ करने की योग्यता है ।
  • इस प्रकार की योग्यता खिलाड़ी की शक्ति , सहन – क्षमता तथा तकनीक पर निर्भर करती है ।
  • किसी फुटबॉल या रग्बी खिलाड़ी तथा मुक्केबाज द्वारा लंबे समय तक खेलते रहने के लिए इस प्रकार की योग्यता की आवश्यकता होती है ।

गति के विकास की विधियां :-

1) त्वरण दौड़ें :-

  • त्वरण दौड़ें विशेष रूप से अधिकतम गति प्राप्त करने के लिए की जाती हैं । यह विशेष रूप से स्थिर अवस्था से अधिकतम गति प्राप्त करने के लिए की जाती है ।
  • त्वरण दौड़ों के लिए एथलीट 50 या 60 मी ० की दौड़ अपनी अधिकतम गति से लगाता है । ये त्वरण दौड़ें बार – बार दौड़ी जाती हैं तथा इन दौड़ों के बीच में अंतराल का समय भी काफी होता है ।
  • त्वरण दौड़ों की संख्या एथलीट की आयु , उसके अनुभव व उसकी क्षमता के अनुसार निश्चित की जाती हैं । यह संख्या में 6-12 तक हो सकती है।
  • त्वरण दौड़ों से पहले उचित गर्माना आवश्यक होता है । प्रत्येक त्वरण दौड़ के बाद उचित अंतराल भी होना चाहिए ताकि एथलीट अगली दौड़ बिना थकावट के लगा सके।

2) पेस दौड़ें :-

  • पेस दौड़ों का अर्थ है कि , एक दौड़ की पूरी दूरी को एक निश्चित गति से दौड़ना । पेस दौड़ों में एक एथलीट दौड़ को समरूप या समान रूप से दौड़ता है।
  • सामान्यता 800 मी . व इससे अधिक दूरी की दौड़ें पेस दौड़ों में शामिल होती हैं। ऐसी दौड़ों का प्रारंभिक भाग बहुत तेज गति से नहीं दौड़ना चाहिए अन्यथा दौड़ या दूसरा भाग पूरा नहीं किया जा सकता।
  • दौड़ की दूरी के अनुसार ही ऊर्जा का वितरण करना चाहिए इसलिए पेस दौड़ के प्रशिक्षण के लिए एक एथलीट को दौड़ की कुल दूरी से 10-20 प्रतिशत अधिक दूरी की दौड़ अधिकतम निरंतर गति बनाए हुए लगानी चाहिए।
  • वैसे तो एक एथलीट 300 मी . की दौड़ लगभग पूरी गति से दौड़ सकता है परन्तु मध्यम या लम्बी दौड़ों में उसे अपनी गति में कमी करके अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखना जरूरी है।

गति विकास के लाभ :-

  • घावक के प्रतिक्रिया – समय में कमी आती हैं ।
  • घावक को अपनी अधिकतम गति को अतिशीघ्र प्राप्त करने की क्षमता में वृद्धि होती है ।
  • शारीरिक गतिविधियों में सामंजस्य और बेहतर होता है ।
  • घावक द्वारा अपनी अधिकतम गति को अधिक देर तक बनाए रखने की क्षमता में वृद्धि होती है ।

लचक

  • किसी व्यक्ति के शरीर के जोड़ों की गतियों के विस्तार को लचक कहते हैं।
  • शरीर के जोड़ों के अधिकतम विस्तार के साथ गति की क्षमता को लचक कहते है।
  • लचक मांसपेशियों की लंबाई , जुड़ों की संरचना , कंडराओं तथा लिगामेंट्स जैसे कारकों द्वारा निर्धारित होती है।
  • केवल अधिक लचक वाला व्यक्ति ही अपने कार्यों को ज्यादा आसानी से , कुशलतापूर्वक तथा आकर्षक ढंग से कर सकता है।
  • लचक चोटों से बचाव करने में , आसन को सुधारने में , पीठ दर्द को कम करने में , निभाती है।

लचक के प्रकार :-

1) अक्रिय लचक :-

  • किसी बाहरी सहायता से शरीर के जोड़ों की अधिक दूरी तक गति करने की योग्यता , अक्रिय लचक कहलाती है। जैसे- किसी सहयोगी की सहायता से खिंचाव वाले व्यायाम करना।
  • किसी खिलाड़ी की अक्रिय लचक उसकी सक्रिय लचक की अपेक्षा हमेशा अधिक होती है । इसी कारण यह सक्रिय लचक का आधार भी होती है।

2) सक्रिय लचक :-

  • प्राकृतिक रूप से अर्थात् बिना किसी बाहरी सहायता के शरीर के जोड़ों की अधिक दूरी तक गति करने की योग्यता सक्रिय चलक कहलाती है।
  • जैसे- बिना किसी की सहायता के खिंचाव वाले व्यायाम करना । सक्रिय लचक भी दो प्रकार की होती है :-

(क) स्थिर लचक :-

  • इस प्रकार की लचक की आवश्यकता स्थिर अवस्था में होती है । जैसे कि- बैठने , लेटने व दौड़ के लिए टर्टाट लेते समय।

(ख) गतिशील लचक :-

  • इस प्रकार की आवश्यकता चलते या दौड़ते समय होती है। गतिशील लचक को खिंचाव वाले व्यायामों द्वारा बढ़ाया भी जा सकता है।

लचक को बढ़ाने की विधियां :-

1) बलिस्टिक विधि :-

  • बलिस्टिक विधि में , शारीरिक क्रियाकलाप लयात्मक ढंग से घुमकर इस प्रकार किए जाते हैं , कि शरीर के घूमने से विभिन्न जोड़ों में अधिकतम खिंचाव उत्पन्न किया जा सकें।
  • इस विधि में व्यायाम गिनती के साथ लयात्मक ढंग से किए जाते हैं। इस प्रकार के व्यायाम से पहले शरीर को गर्मा ( वार्म – अप ) लेना चाहिए ताकि जोड़ों को अधिकतम सीमा तक खींचा जा सकें।

2) स्थिर खिंचाव वाली विधि :-

  • इस विधि में , शरीर को धीरे – धीरे खिंचाव अवस्था में लाकर कुछ देर के लिए उसी अवस्था में रुके रहना होता है।
  • हालांकि स्थिर खिंचाव में रुके रहने का समय व्यक्ति के उद्देश्य पर निर्भर करता है।
  • इस विधि में खिंचाव वाली अवस्था में और आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए।

3) गतिशील खिंचाव विधि :-

  • इस विधि में टाँगों व हाथों को नियंत्रित रूप से इस प्रकार घुमाया जाता है कि जोड़ों में धीरे – धीरे अधिकतम खिंचाव उत्पन्न हो सकें।
  • इस विधि में क्रिया की शुरुआत धीमी गति से करनी चाहिए तथा उसके बाद क्रिया धीरे – धीरे पूरी गति या वेग से की जा सकती है।
  • गतिशील क्रिया वाले खेलों जैसे कि- जिम्नाटिक इत्यादि के लिए इस प्रकार के व्यायामों की आवश्यकता होती हैं।

4) प्रोप्रीओसेप्टिव नाड़ी – पेशीय सरलीकरण विधि :-

  • सामान्यतः उच्च कोटि के खिलाड़ियों द्वारा ही लचक में वृद्धि करने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
  • इस विधि में , खिंचाव से पहले मांसपेशियों का संकुचन किया जाता है , ताकि मांसपेशियों को अधिक से अधिक शिथिल किया जा सके।
  • कम-से-कम समय में लचक के विकास की यह सबसे उपयुक्त विधि है।

समन्वय या तालमेल संबंधी योग्यताएं

  • तालमेल संबंधी योग्यताएँ व्यक्ति की ऐसी योग्यताएँ होती हैं , जो उसे विभिन्न गति क्रियाएँ सुचारु तथा प्रभावशाली ढंग से करने के योग्य बनाती हैं।
  • तालमेल संबंधी योग्यताएँ शारीरिक पुष्टि के पाँच प्रमुख अंगों में से एक हैं । प्रत्येक व्यक्ति/खिलाड़ी के गति वाले कार्य करने का गुण उसकी तालमेल संबंधी योग्यताओं पर ही निर्भर करता है।
  • व्यक्ति की शारीरिक स्थिरता , लय , सही क्रिया आदि करना भी इन्हीं योग्यताओं पर ही निर्भर करता है।
  • किसी खेल के कौशलों को सीखने की गति तथा उसकी स्थिरता भी इन्हीं योग्यताओं पर ही निर्भर करती है।

समन्वय या तालमेल संबंधी योग्यताओं के प्रकार :-

1) मस्तिष्क तथा मांसपेशियों में तालमेल :-

  • किसी कार्य अथवा गतिविधि के दौरान , यदि केन्द्रीय स्नायु संस्थान से मांसपेशियों को पर्याप्त संख्या तथा सही समय पर संकेत मिलते रहें , तो गतिविधि सुचारू रूप से होती है , अन्यथा गतिविधियाँ में बाधा उत्पन्न होने लगती है।
  • यह क्षमता मस्तिष्क तथा मांसपेशिएँ तालमेल कहलाती है। जिन व्यक्तियों में मांसपेशियों तथा मस्तिष्क के तालमेल की अच्छी क्षमता होती है , उन्हें दूसरों की तुलना में प्रत्यक्ष लाभ होता है।

2) अनुस्थापन योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा स्वयं को विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप ढालने ( अनुकूल ) की योग्यता है।
  • यह योग्यता खिलाड़ी की आँखों तथा गति संवेदी इंद्रिय अंगों की क्रियात्मक क्षमताओं पर निर्भर करती है।

3) संयोजन योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा स्थिति के अनुसार गति बदलने के लिए आवश्यक शरीर के विभि अंगों की गतियों को संयोजित करने की योग्यता होती है । सभी खेलों के खिलाड़ियों में इस प्रकार की योग्यता का होना आवश्यक हैं।
  • इस योग्यता का महत्त्व उन खेलों में और भी बढ़ जाता जिनमें शरीर के विभिन्न अंगों की गतिविधियों को तुरन्त संयोजित करने की आवश्यकता होती है , जैसे कि- जिम्नास्टिक , मुक्केबाजी तथा कुश्ती इत्यादि।

4) प्रतिक्रिया योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा खेल के दौरान विभिन्न संकेतों के प्रति तत्काल तथा तीव्र प्रभावशाली प्रतिक्रिया ( immediate and effective reaction ) देने की योग्यता होती है।
  • सामान्यतः प्रतिक्रिया योग्यता दो प्रकार की होती है , जैसे सामान्य प्रतिक्रिया योग्यता तथा जटिल प्रतिक्रिया योग्यता।
(क) सरल प्रतिक्रिया योग्यता :-
  • यह पहले से निर्धारित किसी संकेत के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया देने की योग्यता होती है । जैसे कि- निर्देश मिलते ही धावक द्वारा दौड़ शुरू करना।
(ख) जटिल प्रतिक्रिया योग्यता :-
  • यह खेलों के दौरान स्थिति के अनुरूप अप्रत्याशित संकेतों ( unexpected signs ) के प्रति तुरन्त सटीक प्रतिक्रिया देने की योग्यता होती है । जैसे कि- बल्लेबाज द्वारा फेंकी गई बॉल की प्रकृति के अनुरूप शॉट खेलना।

5) संतुलन योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा खेल के दौरान विभिन्न शारीरिक गतिविधियाँ करते समय अपना शारीरिक संतुलन बनाए रखने की योग्यता होती है।
  • वैसे तो इस प्रकार की योग्यता की आवश्यकता अधिकतर खेलों में पड़ती है , परंतु जिम्नास्टिक जैसे खेल के दौरान यह योग्यता सबसे महत्त्वपूर्ण होती है।

6) लयात्मक योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा खेल के दौरान किसी गतिविधि को लयात्मक रूप से पूर्ण करने की योग्यता होती है।
  • जैसे कि किसी जिम्नास्टिक या स्कैटिंग खिलाड़ी द्वारा प्रदर्शन के दौरान संगीत रूपी लय के अनुसार प्रदर्शन करना ।
  • इस योग्यता की आवश्यकता जिम्नास्टिक , सिंक्रोनाईज्ड तैराकी , गोताखोरी तथा फिगर स्केटिंग जैसे खेलों के लिए होती है।

7) अनुकूलन योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा खेलों के दौरान होने वाले पूर्व निर्धारित अथवा अनापेक्षित परिवर्तनों के कारण अपनी गतियों के प्रभावशाली समायोजन की योग्यता होती है।

8) विभेदन योग्यता :-

  • यह किसी खिलाड़ी द्वारा खेलों के दौरान उच्च दर्जे की सटीकता तथा शरीर की अलग – अलग गतियों की मितव्यता की योग्यता होती है।

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