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Home » Class 9 Hindi » चंद्र गहना से लौटती बेर (CH- 14) Detailed Summary || Class 9 Hindi क्षितिज (CH- 14) ||

चंद्र गहना से लौटती बेर (CH- 14) Detailed Summary || Class 9 Hindi क्षितिज (CH- 14) ||

Posted on May 25, 2023May 25, 2023 by Anshul Gupta

पाठ – 14

चंद्र गहना से लौटती बेर

In this post we have given the detailed notes of Class 9 Hindi chapter 14 चंद्र गहना से लौटती बेर  These notes are useful for the students who are going to appear in Class 9 board exams

इस पोस्ट में कक्षा 9 के हिंदी के पाठ 14 चंद्र गहना से लौटती बेर  के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 9 में है एवं हिंदी विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 9
SubjectHindi (क्षितिज)
Chapter no.Chapter 14
Chapter Nameचंद्र गहना से लौटती बेर
CategoryClass 9 Hindi Notes
MediumHindi
Class 9 Hindi Chapter 14 चंद्र गहना से लौटती बेर

पाठ 14 चंद्र गहना से लौटती बेर

-केदारनाथ अग्रवाल

सारांश

 देख आया चंद्र गहना।

देखता हूँ दृश्य अब मैं

मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।

एक बीते के बराबर

यह हरा ठिगना चना,

बाँधे मुरैठा शीश पर

छोटे गुलाबी फूल का,

सजकर खड़ा है।

चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- चंद्र गहना से लौटती बेर कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी ने गांव की सुंदरता का बड़ा ही मनोहर उल्लेख किया है। वे चंद्र गहना नामक गांव घूमने गए हुए थे और जब वे वापस आ रहे थे, तो उन्हें रास्ते में एक खेत दिखाई देता है। अभी उनकी ट्रेन को आने में भी बहुत वक्त था, इसी कारण वो खेत की प्राकृतिक सुंदरता को निहारने के लिए एक मेड़ (दो खेतों के बीच मिट्टी का बना हुआ रास्ता) पर बैठ जाते हैं और खेतों में उगी फ़सलों तथा पेड़-पौधों को देखने लगते हैं। आगे कवि कहते हैं कि मैंने चंद्र गहना नामक गांव देख लिया है, अब मैं इस खेत की मेड़ पर बैठकर खेत की प्राकृतिक सुंदरता का लाभ उठा रहा हूँ।

आगे चने के पौधे का बड़ा ही सजीला मानवीकरण करते हुए, कवि कहते हैं कि एक बीते (एक पंजे की लम्बाई के बराबर, ज्यादा से ज्यादा 1 फुट) की लम्बाई वाला यह हरा चने का पौधा खेतों के बीच लहलहा रहा है।  चने के पौधों पर गुलाबी रंग के फूल खिले हुए हैं और उन्हें देखने से ऐसा लग रहा है, मानो कोई दूल्हा पगड़ी पहनकर सज धज कर शादी के लिए तैयार हो रहा हो। पास ही मिलकर उगी है।

बीच में अलसी हठीली

देह की पतली, कमर की है लचीली,

नील फूले फूल को सर पर चढ़ा कर

कह रही, जो छुए यह

दूँ हृदय का दान उसको।

चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि केदारनाथ अग्रवाल जी ने अलसी के पौधों का मानवीकरण किया है। अलसी का पौधा बहुत ही पतला होता है और थोड़ी-सी हवा के कारण भी हिलने लगता है और झुक कर फिर खड़ा हो जाता है। इसलिए कवि ने उसे यहाँ देह की पतली और कमर की लचीली कहा है। उन्होंने चने के पौधों के पास में ही उगे हुए, अलसी के पौधों को नायिका के रूप में दिखाया है।

उनके अनुसार यह नायिका बहुत ही जिद्दी है और इसीलिए हठपूर्वक इसने चने के पौधों के मध्य अपना स्थान बना लिया है। इन पौधों में नीले रंग के फूल खिले हुए हैं, जो ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो नायिका अपने हाथों में फूल पकड़ कर अपने प्रेम का इज़हार कर रही हो। जो उसके इस प्रेम को स्वीकार करेगा, वो उस पर अपना प्रेम लुटाने के लिए तैयार खड़ी है।

और सरसों की न पूछो-

हो गयी सबसे सयानी,

हाथ पीले कर लिए हैं

ब्याह-मंडप में पधारी

फाग गाता मास फागुन

आ गया है आज जैसे।

 चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि ने खेतों के प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना विवाह के मंडप से की है। खेतों में चने और अलसी के पौधे अपने सौंदर्य का प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीँ इन सब के बीच, सरसों की तो बात ही निराली है। सरसों के पौधे पूरी तरह बढ़ चुके हैं और उन पर पीले रंग के फूल भी खिल चुके हैं। ये पीले पुष्प सूर्य की रौशनी में किसी नयी दुल्हन के हाथों की तरह चमक रहे हैं। सरसों की फसल पक चुकी है, इसीलिए कवि कहते हैं कि कन्या शादी के लायक हो चुकी है और अपने हाथ पीले करके इस खेत-रूपी ब्याह मंडप पधारी है। ऐसा लग रहा है, जैसे फागुन का महीना स्वयं फाग (होली के समय गाया जाने वाला गीत) गा रहा है।

देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है,

प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है

इस विजन में,

दूर व्यापारिक नगर से

प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।

 चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- इन पंक्तियों में कवि ने गांव की प्राकृतिक सुंदरता एवं शहर की तुलना की है। उनके अनुसार, शहर में रह रहे लोगों के पास इतना वक्त भी नहीं होता कि वो इस प्राकृतिक सौंदर्य का लाभ उठा पाएं। निरंतर होते निर्माण के कारण शहर में हर जगह सिर्फ कंक्रीट की इमारतें ही दिखाई देती हैं। इसलिए उनके मन का प्रेम-भाव बाहर नहीं आ पाता और शहरी लोग स्वार्थी हो जाते हैं, जबकि दूसरी ओर कवि को गांव के प्राकृतिक वातावरण में अनुपम शांति मिल रही है।

कवि कहते हैं कि चारों तरफ सुनसान स्थान होने के बावजूद भी खेतों में इतना प्राकृतिक सौंदर्य भरा है, कि ऐसा लग हो रहा है मानो यहाँ कोई स्वयंवर चल रहा हो। सभी सज-धज के खड़े हैं और मंडप भी सजा हुआ है। कन्याएँ सज कर अपने हाथ में फूलों की माला लेकर दूल्हे का चुनाव कर रही हैं। यहाँ लड़की से सरसों एवं अलसी के पौधों को संबोधित किया गया है, जबकि दूल्हे से चने के पौधे को संबोधित किया गया है। ऐसा दृश्य देखकर कवि के अंदर भी प्रेम-भावना जागने लगती है। इसीलिए कवि ने कहा है, व्यापारिक नगर से दूर प्रेम की यह प्रिय भूमि अधिक उपजाऊ है।

और पैरों के तले है एक पोखर,

उठ रहीं इसमें लहरियाँ,

नील तल में जो उगी है घास भूरी

ले रही वो भी लहरियाँ।

एक चांदी का बड़ा-सा गोल खम्भा

आँख को है चकमकाता।

हैं कई पत्थर किनारे

पी रहे चुप चाप पानी,

प्यास जाने कब बुझेगी!

चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- चंद्र गहना से लौटती बेर कविता की इन पंक्तियों में कवि ने खेत के किनारे तालाब एवं उसमें पड़ने वाली सूर्य की रौशनी का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। वे मेड़ पर जहाँ बैठे हुए हैं, उसके दूसरी ओर स्थित तालाब के जल में हवा के साथ लहरें उठ रही हैं। उसके साथ ही, बगल में उगी भूरी घास भी यूँ हिलने लगती है, मानो आकाश में पतंगें उड़ रही हों। जब तालाब के जल में सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तो उसका प्रतिबिम्ब जल पे एक चांदी के खम्बे की तरह दिखाई देता है, जो कवि की आँखों में निरंतर चमक रहा है और लेखक को उसकी ओर देखने में मुश्किल हो रही है।

दूसरी तरफ, तालाब के किनारे कई पत्थर पड़े हुए हैं, जब-जब तालाब में लहरें उठ रही हैं, तब तब तालाब का जल जाकर पत्थर को भिगो रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो पत्थर चुपचाप पानी पीते जा रहे हैं, परन्तु अभी तक उनकी प्यास नहीं बुझी और पता नहीं कब उनकी प्यास बुझेगी। इस तरह कवि ने अपनी इन पंक्तियों में प्रकृति का बड़ा ही सुन्दर मानवीकरण किया है।

चुप खड़ा बगुला डुबाये टांग जल में,

देखते ही मीन चंचल

ध्यान-निद्रा त्यागता है,

चट दबा कर चोंच में

नीचे गले को डालता है!

एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया

श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन

टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,

एक उजली चटुल मछली

चोंच पीली में दबा कर

दूर उड़ती है गगन में!

चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- कवि देखते हैं कि तालाब के किनारे उथले जल में कुछ बगुले ऐसे खड़े हैं, मानो वो जल में पैर डुबाये खड़े-खड़े सो रहे हों। लेकिन, जैसे ही उन्हें जल के अंदर कोई मछली हिलती-डुलती महसूस होती है या दिखाई देती है, तो वो अपनी चोंच तेजी से जल के अंदर डाल कर उस मछली को पकड़ कर निगल जाता है। वहीँ दूसरी तरफ, जल के ऊपर एक काले रंग के सिर वाली चिड़िया उड़कर चक्कर लगाते हुए तालाब के जल में नजर रख रही है। जैसे ही उसे जल के अंदर मछली नजर आती है, वह बिजली की तेजी से अपने सफ़ेद पंखो के सहारे जल को चीरती हुई गोता लगाकर अंदर चली जाती है और उस मछली पर टूट पड़ती है। उस चमकती हुई मछली को वह काले माथे वाली चिड़िया अपनी पीली चोंच में दबाकर ऊपर आकाश में दूर उड़ जाती है।

औ’ यहीं से-

भूमि ऊंची है जहाँ से-

रेल की पटरी गयी है।

ट्रेन का टाइम नहीं है।

मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,

जाना नहीं है।

 चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- कवि जहाँ बैठकर गांव के प्राकृतिक सौंदर्य का लुत्फ़ उठा रहे हैं, वहीं से कुछ दूर जाकर भूमि ऊँची हो गई है, जिसके पार देखा नहीं जा सकता। उस ऊँची उठी भूमि के दूसरी तरफ ही रेल की पटरी बिछी हुई है। वहीं कहीं रेलवे स्टेशन है, जहाँ से कवि वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने वाले हैं। परन्तु अभी ट्रेन को आने में बहुत समय बाकी है, इसलिए लेखक पूरी स्वतंत्रता के साथ खेतों के मध्य बैठकर सभी जगह ताक-ताक कर प्राकृतिक सौंदर्य का मजा ले रहे हैं। ये सब उन्हें बहुत ही आनंददायी लग रहा है, क्योंकि शहर में उन्हें रोज-रोज ऐसे सौंदर्य को देखने का मौका नहीं मिलता।

चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी

कम ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ

दूर दिशाओं तक फैली हैं।

बाँझ भूमि पर

इधर उधर रीवां के पेड़

कांटेदार कुरूप खड़े हैं।

चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- कवि की नजर खेतों से उठ कर दूर जाती है, तो उन्हें चित्रकूट की असमान रूप से फैली ऊँची-नीची पहाड़ियां नजर आती हैं, जो ज्यादा ऊँची नहीं हैं, लेकिन बहुत दूर तक फ़ैली हुई हैं। इसलिए कवि ने कहा है कि ये दूर दिशाओं तक फ़ैली हुई हैं। कवि को ये पहड़ियाँ उपजाऊ भी नजर नहीं आ रही हैं, क्योंकि उन पर रीवां नामक कांटेदार वृक्षों के अलावा और कोई हरियाली नहीं है।

सुन पड़ता है

मीठा-मीठा रस टपकाता

सुग्गे का स्वर

टें टें टें टें;

सुन पड़ता है

वनस्थली का हृदय चीरता,

उठता-गिरता

सारस का स्वर

टिरटों टिरटों;

मन होता है-

उड़ जाऊँ मैं

पर फैलाए सारस के संग

जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है

हरे खेत में,

सच्ची-प्रेम कहानी सुन लूँ

चुप्पे-चुप्पे।

चंद्र गहना से लौटती बेर भावार्थ:- चंद्र गहना से लौटती बेर कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि ने वनस्थली में गूंजती तोते और सारसों की मधुर आवाज़ों वर्णन किया है। कवि को बीच-बीच में तोते की टें-टें की ध्वनि सुनाई देती है, जो इस शांत वातावरण में वन के अंदर से आ रही है। इस मधुर ध्वनि को सुनकर कवि का मन आनंद से भर उठता है और उनका मन भी तोते की इस मधुर ध्वनि की ताल से ताल मिलाने को करता है।

इसी बीच, कवि को सारस की जंगल को भेद देने वाली ध्वनि सुनाई पड़ती है, जो कभी घटती है, तो कभी बढ़ती है। वास्तव में यह सारस के जोड़े के आपसी प्रेम का संगीत है, जिसे सुनकर कवि यह कल्पना करता है कि वह भी अपने पंख फैलाए सारस के संग उड़ कर हरे खेतों के बीच चला जाए। फिर छुप कर सारसों के सच्चे प्रेम की कहानी सुने, ताकि उन्हें कवि द्वारा कोई तकलीफ़ न हो और वे उड़ ना जाएं।

We hope that Class 9 Hindi Chapter 14 चंद्र गहना से लौटती बेर  notes in Hindi helped you. If you have any query about Class 9 Hindi Chapter 14 चंद्र गहना से लौटती बेरnotes in Hindi or about any other notes of Class 9 Hindi Notes, so you can comment below. We will reach you as soon as possible…

Category: Class 9 Hindi

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