ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (CH-2) Notes in Hindi || Class 11 Sociology Book 2 Chapter 2 in Hindi ||

पाठ – 2

ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

In this post, we have given detailed notes of Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society) in Hindi. These notes are helpful for the students who are going to appear in class 11 exams.

इस पोस्ट में कक्षा 11 के समाजशास्त्र के पाठ 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society) के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 11 में है एवं समाजशास्त्र विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 11
SubjectSociology
Chapter no.Chapter 2
Chapter Nameग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society)
CategoryClass 11 Sociology Notes in Hindi
MediumHindi
Class 11 Sociology Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society) in Hindi
Table of Content
3. Chapter – 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक व्यवस्था

Chapter – 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक व्यवस्था

सामाजिक परिवर्तन

यह वे परिवर्तन हैं जो कुछ समय बाद समाज की विभिन्न इकाइयों में भिन्नता लाते हैं और इस प्रकार समाज द्वारा मानव संस्थाओं, प्रतिमानों, संबंधों, प्रक्रियाओं, व्यवस्थाओं आदि का स्वरूप पहले जैसा नहीं रह जाता है, यह हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है।

आंतरिक परिवर्तन

किसी युग में आदर्श तथा मुल्य में यदि पिछले युग के मुकाबले कुछ नयापन दिखाई पड़े तो उसे आंतरिक परिवर्तन कहते हैं।

बाह्य परिवर्तन या संरनात्मक परिवर्तन

यदि किसी सामाजिक अंग जैसे परिवार, विवाह, नातेदारी, वर्ग, जातीय स्तांतरण, समूहों के स्वरूपों तथा आधारों में परिवर्तन दिखाई देता है उसे बाह्य परिवर्तन कहते है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के स्वरूप

उद्विकास :-

परिवर्तन जब धीरे – धीरे सरल से जटिल की ओर होता है, तो उसे ‘ उद्विकास ‘ कहते हैं।

चार्ल्स डार्विन का उद्विकासीय सिद्धांत :-

  • डार्विन के अनुसार आरम्भ में प्रत्येक जीवित प्राणी सरल होता है।
  • कई शताब्दियों अथवा कभी – कभी सहस्त्राब्दियों में धीरे – धीरे अपने आपको प्राकृतिक वातावरण में ढालकर मनुष्य बदलते रहते हैं।
  • डार्विन के सिद्धान्त ने ‘ योग्यतम की उत्तरजीविता ‘ के विचार पर बल दिया। केवल वही जीवधारी रहने में सफल होते हैं जो अपने पर्यावरण के अनुरूप आपको ढाल लेते हैं, जो अपने आपको ढालने में सक्षम नहीं होते अथवा ऐसा धीमी गति से करते हैं, लंबे समय में नष्ट हो जाते हैं।
  • डार्विन का सिद्धान्त प्राकृतिक प्रक्रियाओं को दिखाता है।
  • इसे शीघ्र सामाजिक विश्व में स्वीकृत किया गया जिसने अनुकूली परिवर्तन मे महात्मा महत्ता पर बल दिया।

क्रांतिकारी परिवर्तन :-

परिवर्तन जो तुलनात्मक रूप से शीघ्र अथवा अचानक होता है। इसका प्रयोग मुख्यतः राजनितिक संदर्भ में होता है। जहाँ पूर्व सत्ता वर्ग को विस्थापित कर लिया जाता है। जैसे :- फ्रांसीसी क्रांति, 1917 की रूसी क्रांति अथवा औद्योगिक क्रांति, संचार क्रांति आदि।

मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन : (उदाहरणबाल श्रम)

  • 19 वी शताब्दी के अंत में यह माना जाने लगा कि बच्चे जितना जल्दी हो काम पर लग जाएँ।
  • प्रारंभिक फैक्ट्री व्यवस्था बच्चो के श्रम पर आश्रित थी।
  • बच्चे पाँच अथवा छह वर्ष की आयु से ही काम प्रारम्भ कर देते थें।
  • 20 वीं शताब्दी के दौरान अनेक देशों ने बाल श्रम को कानून द्वारा बंद कर दिया।
  • यद्यपि कुछ ऐसे उद्योग हमारे देश में है जो आज भी श्रम पर कम – से – कम आंशिक रूप से आश्रित है।
  • जैसे दरी बुनना, छोटी चाय की दुकानें, रेस्तराँ, माचिस बनाना इत्यादि।
  • बाल श्रम गैर कानूनी है तथा मालिकों को मुजरिमों के रूप में सजा हो सकती है।

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार के स्त्रोत अथवा कारण :-

  • पर्यावरण
  • तकनीकी / आर्थिक
  • राजनितिक
  • सांस्कृतिक

पर्यावरण तथा सामाजिक परिवर्तन :-

  • पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन लाने में एक प्रभावकारी कारक है।
  • भौतिक पर्यायवरण सामाजिक परिवर्तन को एक गति देता है। मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को रोकने अथवा झेलने में अक्षम था।
  • भौगोलिक पर्यावरण या प्रकृति समाज को पूर्णरूपेण बदलकर रख देते हैं। ये बदलाव अपरिवर्तनीय होते है अर्थात् ये स्थायी होते हैं तथा वापस अपनी पूर्वस्थिति में नहीं आने देते है।

तकनीक / अर्थव्यवस्था और सामाजिक परिवर्तन :-

प्रौद्योगिकी :- भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यक्ति जिस उन्नत प्रविधि का प्रयोग करते है, उसी को प्रौद्योगिकी कहते हैं।

  • तकनीकी क्रांति से औद्योगिकरण, नगरीकरण, उदारीकरण, जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा मिला।
  • कई बार आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन जो प्रत्यक्ष : तकनीकी नहीं होते हैं, भी समाज को बदल सकते हैं।
  • 17 वीं से 19 वीं शताब्दी में दासों का व्यापार प्रारम्भ किया हुआ।

राजनीतिक ओर सामाजिक परिवर्तन :-

  • राजनीतिक शक्ति ही सामाजिक परिवर्तन का कारण रही है।
  • विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब कोई देश से युद्ध में विजयी होता था तो उसका पहला काम वहाँ की सामाजिक व्यवस्था को दुरूस्त करना होता हैं।
  • अपने शासनकाल के दौरान अमेरीका ने जापान में भूमि सुधार और औद्योगिक विकास के साथ – साथ अनेक परिवर्तन किए।
  • राजनितिक परिवर्तन हमें केवल अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर ही नहीं अपितु हम अपने देश में भी देख सकते हैं।

उदाहरण :-

  • भारत का ब्रिटिश शासन को बदल डालना एक निर्णायक सामाजिक परिवर्तन था।
  • वर्ष 2006 में नेपाली जनता ने नेपाल में ‘ राजतंत्र ‘ शासन व्यवस्था को ठुकरा दिया।
  • सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार राजनैतिक परिवर्तन के इतिहास में अकेला सर्वाधिक बड़ा परिवर्तन है।
  • सार्वभौमिक वयस्क मताधिकारी अर्थात 18 या 18 वर्ष से ज्यादा उम्र के व्यक्तियों को मत देने का अधिकार है।

संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन :-

  • व्यक्ति के व्यवहारों या कार्यों में जब बदलाव आता है तो जीवन में सांस्कृतिक परिवर्तन होता है।
  • सामाजिक – सांस्कृतिक संस्था पर धर्म का प्रभाव विशेष रूप से देखने में आता है।
  • धार्मिक मान्यताएँ तथा मानदंडों ने समाज को व्यवस्थित करने में मदद दी तथा यह बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं हैं कि इन मान्यताओं में परिवर्तन ने समाज को बदलने में मदद की।
  • समाज में महिलाओं की स्थिति को सांस्कृतिक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

सामाजिक व्यवस्था :-

  • सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक व्यवस्था के साथ ही समझा जा सकता है। सामाजिक व्यवस्था तो एक व्यवस्था में एक प्रवृत्ति होती है जो परिवर्तन का विरोध करती है तथा उसे नियमित करती है।
  • सामाजिक व्यवस्था का अर्थ है किसी विशेष प्रकार के सामाजिक संबंधों, मूल्यों तथा परिमापों को तीव्रता से बनाकर रखना तथा उनको दोबारा बनाते रहना।

सामाजिक व्यवस्था को दो प्राप्त करना :-

सामाजिक व्यवस्था को दो प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है :-

  • समाज में सदस्य अपनी इच्छा से नियमों तथा मूल्यों के अनुसार कार्य करें।
  • लोगों को अलग – अलग ढंग से इन नियमों तथा मूल्यों को मानने के लिए बाध्य किया जाए।
  • प्रत्येक समाज सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए इन दोनों प्रकारों के मिश्रण का प्रयोग करता है।

प्रभाव, सत्ता तथा कानून :-

  • मनुष्य की क्रियाएँ मानवीय संरचना के अनुसार ही होती हैं। हर समूह में सत्ता के तत्व मूल रूप से विमान रहते हैं। संगठित समूह में कुछ साधारण सदस्य होते हैं और कुछ ऐसे सदस्य होते हैं जिनके पास जिम्मेदारी होती है उनके पास ही सत्ता भी होती हे। प्रभुत्ता का दूसरा नाम शक्ति है।
  • मैक्स वेबर के अनुसार, समाज में सत्ता विशेष रूप से आर्थिक आधारों पर ही आधारित होती है यद्यपि आर्थिक कारक सत्ता के निर्माण में एकमात्र नहीं कहा जाता है। जैसे उत्तर भारत की प्रभुत्ता सम्पन्न जातियाँ।
  • सत्ता, प्रभाव तथा कानून से गहरे रूप से संबंधित है।
  • कानून नियमों की एक व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज में सदस्यों को नियंत्रित तथा उनके व्यवहारों को नियमित किया जाता है।
  • प्रभुत्व की धारणा शक्ति से संबंधित है तथा शक्ति सत्ता में निहित होती है।
  • सत्ता का एक महत्वपूर्ण कार्य कानून का निर्माण करना तथा तथा शक्ति सत्ता में निहित होती है।

सत्ता के प्रकार :-

  • परम्परात्मक सत्ता – जो परम्परा से प्राप्त हो
  • कानूनी सत्ता जो कानून से प्राप्त हो
  • करिश्मात्मक सत्ता पीर, जादूगर, कलाकार,धार्मिक गुरूओं को प्राप्त सत्ता

अपराध :-

  • अपराध वह कार्य होता है जो समाज में चल रहे प्रतिमानों तथा आदर्शो के विरूद्ध किया जाए। अपराधी वह व्यक्ति होता हे जो समाज द्वारा स्थापित नियमों के विरूद्ध कार्य करता है। जैसे गाँधी जी की नमक कानून तोड़ना ब्रिटिश सरकार की नजर में अपराध था।
  • अपराध से समाज में विघटन आता है क्योंकि अपराध समाज तथा सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध किया गया कार्य है।

हिंसा :-

हिंसा सामाजिक व्यवस्था का शत्रु है तथा विरोध का उग्र रूप है जो मात्र कानून की ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण सामाजिक मानदंडों का भी अतिक्रमण करती है। समाज में हिंसा सामाजिक तनाव का प्रतिफल है तथा गंभीर समस्याओं की उपस्थिति को दर्शाती है। यह राज्य की सत्ता को चुनौती भी है।

बढ़ते अपराध और हिंसा व्यवस्था के कारण :-

ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा युवा वर्ग में बढ़ते अपराध और हिंसा व्यवस्था के कारण :

  • बढ़ती हुई महंगाई
  • बेरोजगारी
  • बदले की भावना
  • फिल्मों का प्रभाव
  • नशा
  • लोगों में भय पैदा करना

गाँव :-

जिस भौगोलिक क्षेत्र में जीवन कृषि पर आधारित होता है, जहाँ प्राथमिक संबंधों की भरमार होती है तथा जहाँ कम जनसंख्या के साथ सरलता होती है उसे गाँव कहते है।

कस्बा :-

कस्बे को नगर का छोटा रूप कहा जाता है जो क्षेत्र से बड़ा होता है परंतु नगर से छोटा होता है।

नगर :-

नगर वह भौगोलिक क्षेत्र होता है जहाँ लोग कृषि के स्थान पर अनेक प्रकार के कार्य करते हैं। जहाँ द्वितीयक संबंधों की भरमार होती है। तथा अधिक जनसंख्या के साथ जटिल संबंध भी पाये जाते हैं।

नगरीकरण :-

यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जनसंख्या का बड़ा भाग गाँव को छोड़कर नगरों एंव कस्बों की ओर पलायन करता है।

ग्रामीण तथा नगरीय समुदायों में अन्तर :-

ग्रामीण क्षेत्र

नगरीय क्षेत्र

1. गांव का आकार छोटा होता है। 

1. गांव का आकार बड़ा होता है। 

2. सम्बन्ध व्यक्तिगत होते हैं। 

2. व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होते हैं। 

3. सामाजिक संस्थाएं जैसे- जाति, धर्म, प्रथाएं अधिक प्रभावशाली हैं।

3. सामाजिक संस्थाएं जैसे- जाति, धर्म, प्रथाएं अधिक प्रभावशाली नहीं हैं।

4. सामाजिक परिवर्तन धीमा है। 

4. सामाजिक परिवर्तन तीव्र है। 

5. जनसंख्या का घनत्व कम है। 

5. जनसंख्या का घनत्व ज्यादा है।

6. मुख्य व्यवसाय कृषि है।

6. कृषि के अलावा सभी व्यवसाय हैं।

ग्रामीण क्षेत्र और सामाजिक परिवर्तन

  • संचार के नए साधनों के परिवर्तन अतः सांस्कृतिक पिछड़ापन न के बराबर।
  • भू – स्वामित्व में परिवर्तन – प्रभावी जातियों का उदय।
  • प्रबल जाति – जो आर्थिक, सामाजिक तथा राजनितिक समाज में शक्तिशाली।
  • कृषि की तकनीकी प्रणाली में परिवर्तन, नई मशीनरी के प्रयोग ने जमींदार तथा मजदूरों के बीच की खाई को बढ़ाया।
  • कृषि की कीमतों में उतार – चढ़ाव, सूखा तथा बाढ़ किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया।
  • निर्धन ग्रामीणों के विकास के लिए सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना अधिनियम कार्यक्रम शुरू किया।

नगरीय क्षेत्र और सामाजिक परिवर्तन :-

  • प्राचीन नगर अर्थव्यवस्था को सहारा देते थे।
  • उदाहरण :- जो नगर पत्तन और बंदरगाहों के किनारे बसे थे व्यापार की दृष्टि से लाभ की स्थिति में थे।
  • धार्मिक स्थल जैसे राजस्थान में अजमेर, उत्तरप्रदेश में वाराणसी अधिक प्रसिद्ध थे।

जनसंख्या का घनत्व अधिक होने से उत्पन्न समस्याएं :-

जनसंख्या का घनत्व अधिक होने से निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न होती हैं :- अप्रवास, बेरोजगारी, अपराध, जनस्वास्थ्य, गंदी बस्तियाँ, गंदगी, (सफाई, पानी, बिजली का अभाव ), प्रदूषण।

पृथक्कीकरण :-

यह एक प्रक्रिया है जिसमें समूह, प्रजाति, नृजाति, धर्म तथा अन्य कारकों द्वारा विभाजन होता है।

घैटोकरण या बस्तीकरण :-

  • समान्यतः यह शब्द मध्य यूरोपीय शहरों में यहूदियों की बस्ती के लिए प्रयोग किया जाता है। आज के सन्दर्भ में यह विशिष्ट धर्म, नृजाति, जाति या समान पहचान वाले लोगों के साथ रहने को दिखाता है।
  • घैटोकरण की प्रक्रिया में मिश्रित विशेषताओं वाले पड़ोस के स्थान पर एक समुदाय पड़ोस में बदलाव का होना है।

मॉस ट्रांजिट :-

शहरों में आवागमन का साधन जिसमें बड़ी संख्या में लोगों का आना जाना होता हैं जैसे मैट्रो।

सीमाशुल्क शुल्क, टैरिफ :-

किसी देश में प्रवेश करने या छोड़ने वाले सामानों पर लगाए कर, जो इसकी कीमत बढ़ाते है और घरेलू रूप से उत्पादित सामानों के सापेक्ष कम प्रतिस्पधी बनाते हैं।

प्रभु जातिः ऍम . एन . श्री निवास के अनुसार :-

भुमिगत मध्यवर्ती जातियों को संदर्भित करता है जो संख्यात्मक रूप से बड़े है और इसलिए किसी दिए क्षेत्र में राजनीतिक प्रभुत्व का आनंद लेते हैं।

गेटेड समुदाय :-

शहरी इलाके (आमतौर पर ऊपरी वर्ग या समृद्धि) नियंत्रित प्रवेश और बाहर निकलने के साथ बाड़, दीवारों और द्वारों से घिरे हुए हैं।

यहूदी, यहूदीकरण :-

मूल रूप से उस इलाके के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द जहाँ यहूदी मध्ययुगीन यूरोपीय शहरों में रहते थे, आज किसी विशेष पड़ोस, जातीयता, जाति या अन्य आम पहचान के लोगों की एकाग्रता के साथ किसी भी पड़ोस को संदर्भित करता है। यहूदीकरण करता है। यहूदीकरण एकमात्र समूदाय पड़ोस में मिश्रित संरचना पड़ोस के रूपांतरण के माध्यम से यहूदी बस्ती बनाने की प्रक्रिया है।

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