पर्वत प्रदेश में पावस (CH- 5) Detailed Summary || Class 10 Hindi स्पर्श(CH- 5) ||

पाठ – 5

पर्वत प्रदेश में पावस

In this post we have given the detailed notes of class 10 Hindi chapter 5 पर्वत प्रदेश में पावस These notes are useful for the students who are going to appear in class 10 board exams

इस पोस्ट में कक्षा 10 के हिंदी के पाठ 5 पर्वत प्रदेश में पावस के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 10 में है एवं हिंदी विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 10
SubjectHindi (स्पर्श)
Chapter no.Chapter 5
Chapter Nameपर्वत प्रदेश में पावस
CategoryClass 10 Hindi Notes
MediumHindi
Class 10 Hindi Chapter 5 पर्वत प्रदेश में पावस

Chapter 5 पर्वत प्रदेश में पावस 

-सुमित्रानंदन पंत

व्याख्या

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,

पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

इस कविता में कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने पर्वतीय इलाके में वर्षा ऋतु का सजीव चित्रण किया है। पर्वतीय प्रदेश में वर्षा ऋतु होने से वहाँ प्रकृति में पल-पल बदलाव हो रहे हैं। कभी बादल छा जाने से मूसलधार बारिश हो रही थी तो कभी धूप निकल जाती है।

मेखलाकर पर्वत अपार

अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,

अवलोक रहा है बार-बार

नीचे जल में निज महाकार,

         -जिसके चरणों में पला ताल

          दर्पण सा फैला है विशाल!

पर्वतों की श्रृंखला मंडप का आकार लिए अपने पुष्प रूपी नेत्रों को फाड़े अपने नीचे देख रहा है। कवि को ऐसा लग रहा है मानो तालाब पर्वत के चरणों में पला हुआ है जो की दर्पण जैसा विशाल दिख रहा है। पर्वतों में उगे हुए फूल कवि को पर्वत के नेत्र जैसे लग रहे हैं जिनसे पर्वत दर्पण समान तालाब में अपनी विशालता और सौंदर्य का अवलोकन कर रहा है।

गिरि का गौरव गाकर झर-झर

मद में नस-नस उत्‍तेजित कर

मोती की लडि़यों सी सुन्‍दर

झरते हैं झाग भरे निर्झर!

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर

उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर

है झांक रहे नीरव नभ पर

अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

झरने पर्वत के गौरव का गुणगान करते हुए झर-झर बह रहे हैं। इन झरनों की करतल ध्वनि कवि के नस-नस में उत्साह का संचार करती है। पर्वतों पर बहने वाले झाग भरे झरने कवि को मोती की लड़ियों के समान लग रहे हैं जिससे पर्वत की सुंदरता में और निखार आ रहा है।

पर्वत के खड़े अनेक वृक्ष कवि को ऐसे लग रहे हैं मानो वे पर्वत के हृदय से उठकर उँची आकांक्षायें लिए अपलक और स्थिर होकर शांत आकाश को देख रहे हैं तथा थोड़े चिंतित मालुम हो रहे हैं।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर

फड़का अपार वारिद के पर!

रव-शेष रह गए हैं निर्झर!

है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!

उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!

-यों जलद-यान में विचर-विचर

था इंद्र खेलता इंद्रजाल।

पल-पल बदलते इस मौसम में अचानक बादलों के आकाश में छाने से कवि को लगता है की पर्वत जैसे गायब हो गए हों। ऐसा लग रहा है मानो आकाश धरती पर टूटकर आ गिरा हो। केवल झरनों का शोर ही सुनाई दे रहा है।

तेज बारिश के कारण धुंध सा उठता दिखाई दे रहा है जिससे ऐसा लग रहा है मानो तालाब में आग लगी हो। मौसम के ऐसे रौद्र रूप को देखकर शाल के वृक्ष डरकर धरती में धँस गए हैं ऐसे प्रतीत होते हैं। इंद्र भी अपने बादलरूपी विमान में सवार होकर इधर-उधर अपना खेल दिखाते घूम रहे हैं।

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