एक फूल की चाह (CH- 10) Detailed Summary || Class 9 Hindi स्पर्श (CH- 10) ||

पाठ – 10

एक फूल की चाह

In this post we have given the detailed notes of Class 9 Hindi chapter 10 एक फूल की चाह These notes are useful for the students who are going to appear in Class 9 board exams

इस पोस्ट में कक्षा 9 के हिंदी के पाठ 10 एक फूल की चाह के नोट्स दिये गए है। यह उन सभी विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है जो इस वर्ष कक्षा 9 में है एवं हिंदी विषय पढ़ रहे है।

BoardCBSE Board, UP Board, JAC Board, Bihar Board, HBSE Board, UBSE Board, PSEB Board, RBSE Board
TextbookNCERT
ClassClass 9
SubjectHindi (स्पर्श)
Chapter no.Chapter 10
Chapter Nameएक फूल की चाह
CategoryClass 9 Hindi Notes
MediumHindi
Class 9 Hindi Chapter 10 एक फूल की चाह

पाठ 10 एक फूल की चाह

-सियारामशरण गुप्त

सारांश

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,

हृदय-चिताएँ धधकाकर,

महा महामारी प्रचंड हो

फैल रही थी इधर-उधर।

क्षीण-कंठ मृतवत्साओं का

करुण रुदन दुर्दांत नितांत,

भरे हुए था निज कृश रव में

हाहाकार अपार अशांत।

एक फूल की चाह भावार्थ : कवि ने एक फूल की चाह कविता में उस वक्त फैली हुई महामारी के बारे में बताया है। इस महामारी की चपेट में ना जाने कितने मासूम बच्चे आ चुके थे। जिन माताओं ने अपने बच्चों को इस महामारी के कारण खोया था, उनके आँसू रुक ही नहीं रहे थे। रोते-रोते उनकी आवाज़ कमजोर पड़ चुकी थी, पर उस कमजोर पड़ चुके करुणा से भरे स्वर में भी अपार अशांति सुनाई दे रही थी।

बहुत रोकता था सुखिया को,

‘न जा खेलने को बाहर’,

नहीं खेलना रुकता उसका

नहीं ठहरती वह पल-भर।

मेरा हृदय काँप उठता था,

बाहर गई निहार उसे;

यही मनाता था कि बचा लूँ

किसी भाँति इस बार उसे।

एक फूल की चाह भावार्थ : प्रस्तुत पंक्ति में एक पिता द्वारा अपने पुत्री को इस महामारी से बचाने के लिए किये जा रहे प्रयासों का वर्णन है। पिता अपनी पुत्री को महामारी से बचाने के लिए, हर बार बाहर खेलने जाने से रोकता था। पर पिता के हर बार मना करने पर भी, पुत्री सुखिया बाहर खेलने चली जाती थी। जब भी पिता सुखिया को बाहर खेलते हुए देखता था, तो डर से उसका हृदय कांप उठता था। वह सोचता था कि किसी भी तरह वह इस बार अपनी पुत्री को इस महामारी से बचा ले।

भीतर जो डर रहा छिपाए,

हाय! वही बाहर आया।

एक दिवस सुखिया के तनु को

ताप-तप्त मैंने पाया।

ज्वर में विह्वल हो बोली वह,

क्या जानूँ किस डर से डर,

मुझको देवी के प्रसाद का

एक फूल ही दो लाकर।

एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों मर कवि बता रहे हैं कि आखिरकार पिता को जिस बात का डर था वही हुआ। सुखिया एक दिन बुखार से बुरी तरह तड़प रही थी। उसका शरीर आग की तरह जल रहा था। इस बुखार से विचलित होकर सुखिया बोल रही है कि वह किस बात से डरे और किस बात से नहीं, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा। बुखार से तड़पते हुए स्वर में वह अपने पिता से देवी माँ के प्रसाद का एक फूल उसे लाकर देने के लिए बोलती है।

क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,

शिथिल हुए अवयव सारे,

बैठा था नव-नव उपाय की

चिंता में मैं मनमारे।

जान सका न प्रभात सजग से

हुई अलस कब दोपहरी,

स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,

कब आई संध्या गहरी।

एक फूल की चाह भावार्थ : तेज बुखार के कारण सुखिया का गला सूख गया था। उसमें कुछ बोलने की शक्ति नहीं बची थी। उसके सारे अंग ढीले पड़ चुके थे। वहीँ दूसरी ओर सुखिया के पिता ने तरह-तरह के उपाय करके देख लिए थे, लेकिन कोई भी काम नहीं आया था। इसी वजह से वह गहरी चिंता में मन मार के बैठा था। वह बेचैनी में हर पल यही सोच रहा था कि कहीं से भी ढूंढ के अपनी बेटी का इलाज ले आए। इसी चिंता में कब सुबह से दोपहर हुई, कब दोपहर ख़त्म हुई और निराशाजनक शाम आयी उसे पता ही नहीं चला।

सभी ओर दिखलाई दी बस,

अंधकार की ही छाया,

छोटी सी बच्ची को ग्रसने

कितना बड़ा तिमिर आया!

ऊपर विस्तृत महाकाश में

जलते-से अंगारों से,

झुलसी-सी जाती थी आँखें

जगमग जगते तारों से।

एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि बता रहे हैं कि ऐसे निराशाजनक माहौल में अंधकार भी मानो डसने चला आ रहा है। पिता को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इतनी छोटी-सी बच्ची के लिए पूरा अंधकार ही दैत्य बनकर चला आया है। पिता इस बात से हताश हो चुका है कि वह अपनी बेटी को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर पाया। इसी निराशा में संध्या के समय आकाश में जगमगाते तारे भी पिता को अंगारों की तरह लग रहे हैं। जिससे उनकी आंखे झुलस-सी गई हैं।

देख रहा था-जो सुस्थिर हो

नहीं बैठती थी क्षण-भर,

हाय! वही चुपचाप पड़ी थी

अटल शांति सी धारण कर।

सुनना वही चाहता था मैं

उसे स्वयं ही उकसाकर-

मुझको देवी के प्रसाद का

एक फूल ही दो लाकर!

एक फूल की चाह भावार्थ : पिता को यह देखकर बहुत कष्ट हो रहा है कि उसकी बेटी जो एक पल के लिए भी कभी शांति से नहीं बैठती थी और हमेशा उछलकूद मचाती रहती थी, आज चुपचाप बिना किसी हरकत के लेटी हुई है। वो यहाँ से वहां शोर मचाकार मानो पूरे घर में जान फूंक देती थी, लेकिन अब उसके चुपचाप हो जाने से पूरे घर की ऊर्जा समाप्त हो गई है। पिता उसे बार-बार उकसा कर यही सुनना चाह रहा है कि उसे देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहिए।

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर

मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;

स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे

पाकर समुदित रवि-कर-जाल।

दीप-धूप से आमोदित था

मंदिर का आँगन सारा;

गूँज रही थी भीतर-बाहर

मुखरित उत्सव की धारा।

एक फूल की चाह भावार्थ : दूर किसी पहाड़ी की चोटी पर एक भव्य मंदिर था। जिसके आँगन में खिले कमल के फूल सूर्य की किरणों में ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो सोने के कलश हों। मंदिर पूरी तरह से दीपकों से सजा हुआ था और धूप से महक रहा था। मंदिर में चारों ओर मंत्रो एवं घंटियो की आवाज़ गूँज रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो मंदिर में कोई उत्सव चल रहा हो।

भक्त-वृंद मृदु-मधुर कंठ से

गाते थे सभक्ति मुद -मय,-

‘पतित-तारिणी पाप-हारिणी,

माता, तेरी जय-जय-जय!‘

‘पतित-तारिणी, तेरी जय जय’-

मेरे मुख से भी निकला,

बिना बढ़े ही मैं आगे को

जाने किस बल से ढिकला!

एक फूल की चाह भावार्थ : भक्तों का एक बड़ा समूह पूरी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ देवी माँ का जाप कर रहा था। सभी एक साथ एक स्वर में बोल रहे थे ‘पतित तारिणी पाप हारिणी, माता तेरी जय जय जय।’ यह सुनकर ना जाने उस अभागे पिता के अंदर भी कहाँ से ऊर्जा आ गई और उसके मुख से भी निकल पड़ा ‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’। वह बिना किसी प्रयास के, अपने-आप ही मंदिर के अंदर चला गया, मानो उसे किसी शक्ति ने मंदिर के अंदर धकेल दिया हो।

मेरे दीप-फूल लेकर वे

अंबा को अर्पित करके

दिया पुजारी ने प्रसाद जब

आगे को अंजलि भरके,

भूल गया उसका लेना झट,

परम लाभ-सा पाकर मैं।

सोचा, -बेटी को माँ के ये

पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

एक फूल की चाह भावार्थ : इन पंक्तियों में कवि बताते हैं कि मंदिर में प्रवेश करने पर पिता पुजारी के पास जाकर अपने हाथों से पुष्प और दीप पुजारी को देता है। पुजारी उसे लेकर देवी माँ के चरणों में अर्पित करता है। पुजारी अपने हाथों में देवी माँ के प्रसाद को लेकर उसे देने के लिए हाथ आगे करता है । पिता इस आनंद में प्रसाद लेना भूल ही जाता है कि अब वह अपनी पुत्री को देवी माँ के प्रसाद का फूल दे पायेगा।

सिंह पौर तक भी आँगन से

नहीं पहुँचने मैं पाया,

सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे

यह अछूत भीतर आया?

पकड़ो देखो भाग न जावे,

बना धूर्त यह है कैसा;

साफ स्वच्छ परिधान किए है,

भले मानुषों के जैसा!

एक फूल की चाह भावार्थ : सुखिया का पिता अभी आँगन तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक पीछे से आवाज़ आयी – ‘अरे यह अछूत मंदिर में कैसे घुस गया। पकड़ो इसे कहीं भाग ना जाए। किस तरह इसने मंदिर में घुसकर चालाकी की है। देखो कैसे साफ़ सुथरे कपड़े पहनकर हमारी नक़ल कर रहा है। पकड़ो इस धूर्त को। कहीं भाग ना जाए।’

पापी ने मंदिर में घुसकर

किया अनर्थ बड़ा भारी;

कलुषित कर दी है मंदिर की

चिरकालिक शुचिता सारी।“

ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है

देवी की गरिमा से भी;

किसी बात में हूँ मैं आगे

माता की महिमा के भी?

एक फूल की चाह भावार्थ : फिर भीड़ से आवाज़ आयी कि इस पापी ने मंदिर में घुस कर बड़ा अनर्थ किया है। मंदिर की सालों-साल की गरिमा, पवित्रता को इसने नष्ट कर दिया। सब मिलकर चिल्लाने लग जाते हैं कि इस पापी ने मंदिर में घुस कर मंदिर को दूषित कर दिया। तब सुखिया का पिता यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या मेरा अछूतपन देवी माँ की महिमा से भी बड़ा है? क्या मेरे इस अछूतपन में देवी माँ से भी ज्यादा शक्ति है, जिसने देवी माँ के रहते हुए भी इस पूरे मंदिर को अशुद्ध कर दिया?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,

करके यह विचार खोटा?

माँ के सम्मुख ही माँ का तुम

गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने, झट से

मुझे घेरकर पकड़ लिया;

मार मारकर मुक्के घूँसे

धम्म से नीचे गिरा दिया!

 एक फूल की चाह भावार्थ :  सुखिया के पिता ने भीड़ से कहा कि तुम माँ के कैसे भक्त हो, जो खुद माँ के गौरव को मेरी तुलना में छोटा कर दे रहे हो। अरे माँ के सामने तो छूत-अछूत सभी एक-समान हैं। परन्तु, सुखिया के पिता की इन बातों को किसी ने नहीं सुना और भीड़ ने उसे पकड़ कर खूब मारा, फिर मारते हुए उसे जमीन पर गिरा दिया।

मेरे हाथों से प्रसाद भी

बिखर गया हा! सबका सब,

हाय! अभागी बेटी तुझ तक

कैसे पहुँच सके यह अब।

न्यायालय ले गए मुझे वे,

सात दिवस का दंड-विधान

मुझको हुआ; हुआ था मुझसे

देवी का महान अपमान!

एक फूल की चाह भावार्थ : भीड़ के इस तरह सुखिया के पिता को पकड़ के मारने के कारण, उसके हाथों से प्रसाद भी गिर गया। जिसमें देवी माँ के चरणों में चढ़ा हुआ फूल भी था। सुखिया के पिता मार खाते हुए, दर्द सहते हुए भी सिर्फ यही सोच रहे थे कि अब ये देवी माँ के प्रसाद का फूल उसकी बेटी सुखिया तक कैसे पहुँचेगा। भीड़ उसे पकड़ कर न्यायलय ले गयी। जहाँ पर उसे देवी माँ के अपमान जैसे भीषण अपराध के लिए सात दिन कारावास का दंड दिया गया।

मैंने स्वीकृत किया दंड वह

शीश झुकाकर चुप ही रह;

उस असीम अभियोग, दोष का

क्या उत्तर देता, क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में

या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,

अविश्रांत बरसा करके भी

आँखें तनिक नहीं रीतीं।

एक फूल की चाह भावार्थ : सुखिया के पिता ने चुपचाप दंड को स्वीकार कर लिया। उसके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे पूरे सात दिन जेल में बिताने पड़े, जो उसे सात सदियों के बराबर प्रतीत हो रहे थे। पुत्री के वियोग में सदैव बहते आंसू भी रुक नहीं पा रहे थे। वह हर पल अपनी प्यारी पुत्री को याद करके रोता रहता था।

दंड भोगकर जब मैं छूटा,

पैर न उठते थे घर को;

पीछे ठेल रहा था कोई

भय-जर्जर तनु पंजर को।

पहले की-सी लेने मुझको

नहीं दौड़कर आई वह;

उलझी हुई खेल में ही हा!

अबकी दी न दिखाई वह।

एक फूल की चाह भावार्थ : जेल से छूट कर वह भय के कारण घर नहीं जा पा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसके शरीर के अस्थि-पंजर को मानो कोई उसके घर की ओर धकेल रहा हो। जब वह घर पहुंचा, तो पहले की तरह उसकी बेटी दौड़ कर उसे लेने नहीं आयी और ना ही वह खेलती हुई बाहर कहीं दिखाई दी।

उसे देखने मरघट को ही

गया दौड़ता हुआ वहाँ,

मेरे परिचित बंधु प्रथम ही

फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर

छाती धधक उठी मेरी,

हाय! फूल-सी कोमल बच्ची

हुई राख की थी ढ़ेरी!

एक फूल की चाह भावार्थ : जब वह घर पर अपनी बेटी को नहीं देख पाता है, तो वह अपनी बेटी को देखने के लिए श्मशान की ओर दौड़ता है। परन्तु जब वह श्मशान पहुँचता है, तो उसके परिचित बंधु आदि संबंधी पहले ही उसकी पुत्री का अंतिम संस्कार कर चुके होते हैं। अब तो उसकी चिता भी बुझ चुकी थी। यह देख कर सुखिया के पिता की छाती धधक उठती है। उसकी फूलों की तरह कोमल-सी बच्ची आज राख का ढेर बन चुकी थी।

अंतिम बार गोद में बेटी,

तुझको ले न सका मैं हा!

एक फूल माँ का प्रसाद भी

तुझको दे न सका मैं हा!

एक फूल की चाह भावार्थ : अंत में सुखिया के पिता के मन में बस यही मलाल शेष बचता है कि वह अपनी पुत्री को अंतिम बार गोद में भी नहीं ले पाया। वह इतना अभागा है कि अपनी बेटी की अंतिम इच्छा के रूप में, माँ के प्रसाद का एक फूल भी उसे लाकर नहीं दे पाया।

 

We hope that Class 9 Hindi Chapter 10 एक फूल की चाह notes in Hindi helped you. If you have any query about Class 9 Hindi Chapter 10 एक फूल की चाह notes in Hindi or about any other notes of Class 9 Hindi Notes, so you can comment below. We will reach you as soon as possible…

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